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जब भी छा जाता है
जीवन में अन्धकार
शून्य सी हो जाती हूँ
मिटाने को अकेलापन
लगाती हूँ
हम प्याले, हम निवाले,
हम साये, हम शक्ल से
कुछ अंक,
शून्य से पहले
और हमेशा ही घटती
और विभजित होती हूँ
सम संख्याओं की तरह
कुछ इस तरह की
कुछ भी बचा नहीं पाती अपने लिए
मात्र एक शून्य के
विषमताओं से सीखा है
शून्य से परे कुछ अंक लगाना
घटती और विभाजित तो होती हूँ आज भी
इसके बाद भी बचा ही लेती हूँ अक्सर
कुछ अंक अपनी मुट्ठी में
विषम संख्याओं की तरह
निकलने लगी हूँ अब
सम संख्याओं के जाल से
पहचान जो लेती हूँ
अनेकों सम में छुपे कुछ विषम चेहरे
यूँ बच जाती हूँ
कई बार शून्य होने से
शून्य से अंकों तक
और अंको से शून्य तक
जी लेती हूँ एक सम्पूर्ण जीवन