भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कैनवस / सरस दरबारी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरस दरबारी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

21:39, 15 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

अनगिनत रंग, बिखरे पड़े थे सामने
दोस्तीविरहदुःखसमर्पण
और एक कोरा कैनवस
बनाना चाहा एक चित्र जीवन का
जब चित्र पूरा हुआ
तो पाया सभी रंग एक दूसरे से मिलकर
अपनी पहचान खो चुके थे!
लाल, पीले से मिलकर नारंगी हो गया था
पीले नीले में घुलकर हरा
नीला लाल में घुलकर बैंगनी
जीवन ऐसा ही तो है
आज की ख़ुशी में हम-
कल की चिंताएँ मिलाकर-
बीते दुःख को आज में शामिल कर-
प्यार और विश्वास में शक को घोल-
उसे ईर्ष्या अविश्वास में बदल देते हैं
और उस साफ़ सुथरे कैनवस पर
खिले रंगों को विकृत कर
खोजते फिरते हैं
अर्थ!