भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"पितर / अनुराधा सिंह" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनुराधा सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
18:02, 16 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
माँ कहती अभी किनकी है
भात ढँक दो
पिता कहते सीमेंट गीला है
पैर नहीं छापना
खेत कहते बाली हरी है मत उघटो
धूप कहती खून पसीना कहाँ हुआ अभी
चलती रहो, और बीहड़ करार हैं अभी
मैं समय के पहिये में लगी सबसे मंथर तीली
जब तक व्यथा की किनकी बाक़ी रही
किसी के सामने नहीं खोला मन
ठंडा गरम निबाह लिया
सुलह की थाली में परोसा देह का बासी भात
आँख के नमक से छुआ
सब्र के दो घूँट से निगल लिया
पत्थर हो गया मन का सीमेंट पिता
कहीं छाप नहीं छोड़ी अपनी
देह की बाली पकती रही
नहीं काटी हरे ज़ख्मों की फसल
इतनी निबाही तुम सब पितरों की बातें
कि चुकती देह और आत्मा के पास नहीं बाक़ी
अपना खून पानी नमक अब ज़रा भी