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दिवा को संध्या की गहन प्रतीक्षा के क्षणों में देखना
ठीक उस पर्वत की प्रतीक्षा की भाँति होता है
जहाँ आसमान झुककर उसे ढक लेना चाहता है
कुछ भाषाएँ शब्दों की औपचारिकता से मुक्त रहती हैं
एकांत में अदृश्य शब्द गुंथ जाते हैं
जैसे निशा की श्वेत चाँदनी में श्याम अक्षर वार्तालाप करते हैं
प्रिय मिलन की आस प्रेयसी के कपोलों पर अश्रुधार विरह की पूरी कथा लिख जाती है
शब्दों की अनुपस्थिति जैसे अपना विलोम कहती हो
कथनीय - अकथनीय के भेद का अंत ही शब्दों के साश्वत हो जाने का प्रमाण है
यह वार्तालाप