"कविता नहीं लिखते / छवि निगम" के अवतरणों में अंतर
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न, कविता नहीं लिखते।
जी, बस ऐसे ही टाइम पास करते हैं
हम कुछ खास नहीं करते।
मुआफ़ी चाहते हैं...
वो तो बेसाख़्ता ही
बेमतलब बेमक़सद
बिख़र आते हैं कभी स्याह से बाग़ी ख़यालात किसी सफ़ेद सफ़े पे बरबस..
जब हमसे सम्भाले नहीं सम्भलते।
जी, क्या कहा?
नहीं नहीं।हम कविता नहीं लिखते।
वो तो यूँ ही
कैलेंडर में तारीखों के गिर्द गोले खींचते
बेबस इक उम्र की नाप तौल करते
बेख़याली में, नामालूम सा दर्ज़ हो जाता है, उसी पन्ने के पीछे कुछ ..
दिन रातों के हिसाब शरीक़ करते
समीकरण बैठाते, जोड़ते घटाते कभी कभार
कभी धोबी को दिए कपड़े गिनते गिनते
जाने किस और मुड़ जाती है मुई पेन्सिल बेलगाम
जगह न हो तो, हाशिये पे ही भाग पड़ती है..
कहीं ऐसे भी कविता होती है?
पुरानी कॉपियों के आख़िरी पेज पर
भूले भटके किसी प्रिस्क्रिप्शन, पर्ची कभी किसी बिल को उलट
भागते आ, कुछ लिखना
फिर वापस दौड़ जाना
बताइये, ये हिमाकत भला कविता हो सकती है?
ये कविता नहीं, कोई मर्ज़ है ज़रूर
न कोई सैलाब इसमें, न तनिक बारूद
वो तो बेइख़्तियार, चाय की पतीली से मसालदान में कूद आते हैं
रंगों के भूखे चन्द अलफ़ाज़ बेशऊर
पिस के भुन जाते हैं बेचारे
कभी गूंध लिए जाते है, कभी दूध संग उफ़न बह जाते हैं..
जी सही कहा, कविता ये थोड़े ही न बनाते हैं।
पुलक दबा लेते हैं, हम थिरकन बाँध कर रखते हैं
तल्खी से जज़्बातों की हिफ़ाजत किया करते हैं
वो तो चुभ जाती है बेसाख़्ता कभी कोई किर्च अपने ही वज़ूद की
बुहारते यादों का सीला सा आँगन
बस एक आह सिसक पड़ती है कभी, ग़र छिपा नहीं पाते
जी, जख़्मों का पर्दा रखते हैं।
वो जब आसमाँ का एक टुकड़ा टूट, आ लपकता खिड़की के भीतर जब
बस तारे बीन, चाँद के सदके जुगनू बना उड़ा देते हैं
धड़कन की पायल छनकाते सांसों की परवाजें भरते हैं
कहाँ हम कविता कोई लिखते हैं?
वो तो नामुराद, बेग़ैरत कुछ बेमुरव्वत से सपने
छिप जाते कमबख्त, वैसे तो तनिक सी आहट पर
पर देखो कब्ज़ा जमाये रखते हैं जबरन दिल पर, जेहन पर
नींद में ख़लल डाल, खुद गद्दे के नीचे, किसी कागज़ पर सो जाते हैं
हम सपनों की लत से उबरने की, पर जारी ज़िद रखते हैं
बताने लायक सा, हम तो कुछ नहीं करते
जी, आप सही हैं
फ़क़त जाया वक़्त करते हैं
हम कविता नहीं लिखते।