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"ज़ख़्म को ज़ख़्मे-दिल बनाती हो / दीपक शर्मा 'दीप'" के अवतरणों में अंतर

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हर घड़ी क्या वही बताना,उफ़
+
ज़ख़्म को ज़ख़्मे-दिल बनाती हो
है इधर दिल उधर ज़माना, उफ़
+
फिर गिरा कर के फिर उठाती हो
  
वह गली है अजीब ही सी गली
+
सच में हँसती हो,यार! सच बोलो
उस गली में कभी न जाना, उफ़
+
मुझको लगता है कुछ छुपाती हो
  
उम्र भर बस यही हुआ हर रोज़
+
मुझ से जब मिलने आना होता है
'कुण्डियां' खोलना-चढ़ाना, उफ़
+
घर के लोगों को, क्या पढ़ाती हो?
  
बस यही हो रहाहै सच को झूठ
+
तुम पे पानी का ख़्वाब खुलता है
झूठ को अब 'ख़ुदा' बताना, उफ़
+
''तुम को लगता है तुम नहाती हो''
  
कुछ हुआ क्या जुनून से हासिल
+
मैं ही बस ख़ुद को बरगलाता हूँ?
मिल गया आपको ख़ज़ाना! उफ़..
+
तुम भी तो ख़ुद को बरगलाती हो
  
बात की बात कुछ नहीं फिर भी
+
'उस सड़क पर ही तो है दिल मेरा
बे वजह यों ही तिलमिलाना, उफ़
+
जिस से तुम रोज़ आती-जाती हो'
  
आप का ज़ख़्म दे के जाना फिर
+
कुछ भी गिरता नहीं है फिर भी, ये
दम ब दम जाके लौट आना, उफ़
+
रोज़ झुक-झुक के क्या उठाती हो!
  
हर किसी पे लगाए रखना आंख
+
'कल को पछता के फिर न रो देना
हर कहीं पे ही दिल झुकाना, उफ़
+
अब जो उल्फ़त के दिन गँवाती हो'
  
बात करने का मन न हो तो 'दीप'
+
किस को खाती हो ‘बादे-दीपक' हां
यकबयक काम का बहाना, उफ़
+
किस की आंखों में अब लजाती हो!
 
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09:37, 23 दिसम्बर 2017 के समय का अवतरण


ज़ख़्म को ज़ख़्मे-दिल बनाती हो
फिर गिरा कर के फिर उठाती हो

सच में हँसती हो,यार! सच बोलो
मुझको लगता है कुछ छुपाती हो

मुझ से जब मिलने आना होता है
घर के लोगों को, क्या पढ़ाती हो?

तुम पे पानी का ख़्वाब खुलता है
तुम को लगता है तुम नहाती हो

मैं ही बस ख़ुद को बरगलाता हूँ?
तुम भी तो ख़ुद को बरगलाती हो

'उस सड़क पर ही तो है दिल मेरा
जिस से तुम रोज़ आती-जाती हो'

कुछ भी गिरता नहीं है फिर भी, ये
रोज़ झुक-झुक के क्या उठाती हो!

'कल को पछता के फिर न रो देना
अब जो उल्फ़त के दिन गँवाती हो'

किस को खाती हो ‘बादे-दीपक' हां
किस की आंखों में अब लजाती हो!