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"चुप्पियाँ / पंकज सुबीर" के अवतरणों में अंतर

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कानों में चुभ रही हैं
चुप्पियाँ
टीस जाता है
सन्नाटा भी
रह-रह कर,
जड़ता और पशुता के बीच
डोल रहा है
पैंडुलम की तरह
मौन...
सचमुच कितना पीड़ादायी होता है
एक पूरी पीढ़ी का
नपुंसक हो जाना।