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"मौसम / निरुपमा सिन्हा" के अवतरणों में अंतर
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मंडराती हैं
आसपास
तमाम मधुमक्खियाँ
पैरों में
हाथों में
चेहरों पर
यहाँ तक की
दिल पर भी
ऊभरे थे
अनेक डंक के निशाँ
उसने सीखा नहीं
स्वभाव का गेंद बन जाना
लौटा नहीं पाती थी
कोई भी दंश
एकत्र करती जाती थी
सब कुछ
समय के अंतराल पर
आ जाते थे
व्यापारी
बटोर ले जाने
"शहद”
वसंत आ रहा है घबरा रहा है
उसका मन
मौसम फूलों का
बढ़ा न दे उसका दर्द