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"द्रौपदी बना लोकतन्त्र / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर

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इतिहास के कलुष पत्र में
दिल्ली तो धृतराष्ट्र हो चुकी।
द्रौपदी बना लोकतन्त्र और
सत्ता कौरवदासी हो चुकी।
प्रशासन जुए में हारे हुए पाण्डव सा,
व्यवस्था संन्यासिनी हो चुकी।
न्यायपालिका भीष्म बनी है,
विदुर-नीति परास्त हो चुकी।
कौरव-अट्टाहास, जनतन्त्र-रुदन,
सिंहासन की बीमारी हो चुकी।
क्या कोई कृष्ण अवतरित होगा,
चीरहरण की तैयारी हो चुकी।
घूँट अपमान प्रतिपल और मीठा विष,
धीमी आत्महत्या लाचारी हो चुकी।
फटे वस्त्र सिये या कृष्ण की प्रतीक्षा करे,
यह अनसुलझी पहेली हो चुकी।
आशा है- सम्भवतः वह पुनः आएगा,
त्राहिमाम! कह जनता बेचारी हो चुकी।
संभवामि युगे-युगे, उसने ही कहा है,
गुंजायमान परिवर्तन की रणभेरी हो चुकी।

(सन्दर्भ: लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयन्ती पर लखनऊ में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन -2013 में प्रस्तुत)