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"गंध तुम्हारी / संजीव ठाकुर" के अवतरणों में अंतर

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14:08, 23 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण

हर रोज़
अटके रह जाते थे शब्द
ओठों में
तुमसे मिलकर आने के बाद
और छा जाती थी
गंध तुम्हारी– मेरे चारों ओर!
अंतिम बार
सीढ़ियों से उतरते
तुम्हारे पैरों की तरह
ठहर गए थे शब्द
रह गई थीं बातें शेष
जो कभी कही नहीं गईं!

गंध तुम्हारी
तुम्हारी अमानत तो न थी
फिर क्यों उसे
अपने में कैद कर लिया?...
मैं अब भी
महसूस करना चाहता हूँ
गंध तुम्हारी
अपने चारों ओर

आ-ओ!