"सम्मोहन / ज्योत्स्ना मिश्रा" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज्योत्स्ना मिश्रा |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
14:09, 27 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
ना! इसे केवल दुख मत कहना!
ये जो अंदर से भरी गगरी सी, छलछलातीं हूँ,
जान बूझते ही, अक्सर किसी जंगल में भटक जातीं हूँ!
ये केवल गम नहीं है सखी!
ये जो कुछ भी है केवल व्यथा नहीं है!
न कह पायी गयी कोई कथा नहीं है!
मैं जो उड़ते-उड़ते तेरे काँधे पर बैठ जातीं हूँ,
तो ये मात्र थकान का उतरना नहीं!
ज्वार का ठहरना नहीं!
ये जो बंद गलियों में निरुत्तर भटकते प्रश्न,
लौट लौट आते है।
और मेरी हथेलियाँ किसी भीगे स्वप्न को,
सहम के छोड़ देती हैं।
और अनायास ही हवाऐं,
फूल का अनदेखा सपना तोड़ देतीं हैं।
ये शताब्दियों की सिहरन,
थरथराते हुये पलों का पराग की तरह, बिखर जाना!
वक्त की चमड़ी फट जाती है!
अरण्य-सा विस्तार लिये,
पहाड़ों जैसा मौन उभर आना!
सदियों के सन्नाटे क्या केवल दुख होतें हैं?
पपड़ाये होठ लिये एहसास केवल सिसकी बोते हैं?
नहीं ये दुख नहीं दुख का भ्रम होता है।
ये प्रेम के जाने के बाद का पल,
जीवन के अद्भुत सम्मोहन से बाहर आकर
फिर मोहित होने का क्रम होता है।