"बेटियाँ पढ़ रहीं हैं / ज्योत्स्ना मिश्रा" के अवतरणों में अंतर
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बेटियाँ पढ़ रहीं हैं
कभी मन लगा कर
कभी अनमनी
कभी उठ कर यूँ ही दर्पण में झांक जाती हैं
कभी छत पर कभी बालकोनी में निकल जाती हैं
आसमानी रंग की बेटियाँ
कमरों में उजास भरतीं हैं
कभी मैना-सी चह्चहातीं
कभी तितलियों-सी रंगीन हो जातीं
मैं मंत्रमुग्ध हो जाती,
खिड़कियाँ बंद कर देती हूँ
बचाना है मुझे बेटियों को
दुनिया के सर्द गर्म से
बड़ी को देखकर सोचती हूँ
समझदार है, कुछ नहीं होगा
छोटी को देखकर आश्वस्त हो जाती हूँ, अभी छोटी है
वो जो हुआ पड़ोस की बेटी के साथ
वो इसके साथ नहीं होगा
खिडकियों दरवाजों की कुण्डियाँ
ठीक से बंद कर दूँ
बेटियाँ मुस्कुरा रहीं हैं
झगड़ रहीं हैं
बड़ी ने छोटी की चोटी खींची
छोटी ने बड़ी को मुंह चिढाया
मैं इन्हें हर बुरी नज़र से बचाती हूँ
खुद को कसम देती हूँ
इनके साथ कुछ ग़लत नहीं होगा
कुछ भी नहीं!
दुनिया की कोई ख़राश इन तक नहीं!
मैं बेटियों से हर खबर छिपाती हूँ
अखबार उन तक न पहुचनें देने की
हडबडाहट में
उनके सपने छिपा देती हूँ
उनके पसंद के कपडे छिपा देती हूँ
छिपा देती हूँ
उनके दरवाजे, उनके रास्ते, उनके लक्ष्य!
भागती हूँ बदहवास
उनके ख्यालों के पीछे
उनके पैरों को ही नहीं
उनके दिल, दिमाग, उमंगों को भी रोक देती हूँ
उनकी आँखे बहुत चमकीली हैं
मैं हर परावर्तित किरण को टोक देती हूँ
वो खीजती हैं
फिर भी माँ की बौखलाहट पर रीझती हैं
रोज सुबह बस्तों में टिफ़िन के साथ
टाफियाँ, इमली और न जाने कैसे-कैसे खेल भर लेती हैं
उठाकर आले से मेरा बचपन
कानों में पहन लेती हैं
पाँवो में जूतो के साथ
न जाने कितने संकल्प
बालों में गूँथती हैं
आकाश गंगा
और होठों पर हरसिंगार
निकल पड़तीं हैं स्कूल या कॉलेज को
मैं रह जाती हूँ
उनके छूटे हुए दुपट्टे या स्कार्फ के साथ
शाम तक कितनी आशंकाओं से जूझती
डरती, धडकते कलेजे बीतता दिन
पर बीतता!
झटकती दिमाग की सारी उलझने
यही सोचकर
वो कोई और लड़कियाँ होंगीं
हुआ जिनका बलात्कार
सड़कों के किनारे मिली जिनकी लाश
कुछ तो गलती रही होगी उनकी भी
मेरी बेटियाँ ऐसी नहीं!
फिलवक्त बहला देतीं हूँ
खुद को ऐसे ही
कब तक?
नहीं जानती।