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जन्म | 1721 |
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जन्म स्थान | टेंउगा, प्रतापगढ़, राजस्थान |
कुछ प्रमुख कृतियाँ | |
रससारांश, शृंगारनिर्णय, छंदार्णव, अमरतिलक, अमरकोश-नामप्रकाश, अलंकार, काव्यनिर्णय, छंदप्रकाश, मात्रा-प्रस्तार वर्णमर्कटी, विष्णुपुराण, शतरंजशतिका | |
विविध | |
जीवन परिचय | |
भिखारीदास / परिचय |
प्रतिनिधि रचनाएँ
भिखारीदास के निम्नलिखित ग्रंथ पाए जाते हैं
- रससारांश
- शृंगारनिर्णय
- छंदार्णव
- अमरतिलक
- अमरकोश-नामप्रकाश
- अलंकार
- काव्यनिर्णय
- छंदप्रकाश
- मात्रा-प्रस्तार वर्णमर्कटी
- विष्णुपुराण
- शतरंजशतिका
कविता काल
'काव्यनिर्णय' में भिखारी दास जी ने प्रतापगढ़ के सोमवंशी राजा पृथ्वीसिंह के भाई बाबू हिंदूपतिसिंह को अपना आश्रयदाता लिखा है। राजा पृथ्वीपति संवत 1791 में गद्दी पर बैठे थे और 1807 में दिल्ली के वज़ीर सफदरजंग द्वारा छल से मारे गए थे। ऐसा जान पड़ता है कि संवत 1807 के बाद इन्होंने कोई ग्रंथ नहीं लिखा अत: इनका कविता काल संवत 1785 से लेकर संवत 1807 तक माना जा सकता है।
काव्यांगों का निरूपण
काव्यांगों के निरूपण में भिखारी दास को सर्वप्रधान स्थान दिया जाता है क्योंकि इन्होंने छंद, रस, अलंकार, रीति, गुण, दोष शब्दशक्ति आदि सब विषयों का औरों से विस्तृत प्रतिपादन किया है। इनकी विषय प्रतिपादन शैली उत्तम है और आलोचनशक्ति भी इनमें कुछ पाई जाती है; जैसे हिन्दी काव्यक्षेत्र में इन्हें परकीया के प्रेम की प्रचुरता दिखाई पड़ी, जो रस की दृष्टि से रसाभास के अंतर्गत आता है। बहुत से स्थलों पर तो राधाकृष्ण का नाम आने से देवकाव्य का आरोप हो जाता है और दोष का कुछ परिहार हो जाता है, पर सर्वत्र ऐसा नहीं होता। इससे भिखारी दास ने स्वकीया का लक्षण ही कुछ अधिक व्यापक करना चाहा और कहा,
श्रीमाननि के भौन में भोग्य भामिनी और
तिनहूँ को सुकियाह में गनैं सुकवि सिरमौर
साहित्यदर्पण में नायिकाओं के स्वभावज अलंकार 18 कहे गए हैं - लीला, विलास, विच्छित्ति, विव्वोक, किलकिंचित, मोट्टायित्ता, कुट्टमित्ता, विभ्रम, ललित, विहृत, मद, तपन, मौग्धय, विक्षेप, कुतूहल, हसित, चकित और केलि। इनमें से अंतिम आठ को लेकर भिखारी दास ने भाषा में प्रचलित दस हावों में जोड़ दिया। इन्हें जानने के लिए हिन्दी में संस्कृत के मुख्य सिध्दांत ग्रंथों के सब विषयों का यथावत समावेश कर साहित्यशास्त्र का सम्यक् अध्ययन करना होगा।
भिखारी दास का आचार्यत्व
देव की भाँति भिखारी दास का स्थान है। यद्यपि इस क्षेत्र में औरों को देखते भिखारी दास ने अधिक काम किया है, पर सच्चे आचार्य का पूरा रूप इन्हें भी प्राप्त नहीं हो पाया है। परिस्थिति से ये भी लाचार थे। इनके लक्षण भी व्याख्या के बिना अपर्याप्त और कहीं कहीं भ्रामक हैं और उदाहरण भी कुछ स्थलों पर अशुद्ध हैं। जैसे - उपादान लक्षणा, इसका लक्षण भी अशुद्ध है और उसी के अनुरूप उदाहरण भी अशुद्ध है। अत: भिखारी दास भी औरों के समान वस्तुत: कवि के रूप में ही हमारे सामने आते हैं।
परिमार्जित भाषा
भिखारी दास ने साहित्यिक और परिमार्जित भाषा का व्यवहार किया है। श्रृंगार ही उस समय का मुख्य विषय था। देव ने भिन्न भिन्न देशों और जातियों की स्त्रियों के वर्णन के लिए 'जातिविलास' लिखा, जिसमें नाइन, धोबिन, सब हैं, पर भिखारी दास ने रसाभाव या मर्यादा का ध्यान रख इनको आलंबन के रूप में न रखकर दूती के रूप में रखा है। इनके 'रससारांश' में नाइन, नटिनी, धोबिन, कुम्हारिन, बरइन, सब प्रकार की दूतियाँ हैं।
शैली
भिखारी दास में देव की अपेक्षा अधिक रसविवेक था। इनका 'श्रृंगारनिर्णय' अपने ढंग का अनूठा काव्य है। उदाहरण मनोहर और सरस है। भाषा में शब्दाडंबर नहीं है। न ये शब्द चमत्कार पर टूटे हैं, न दूर की सूझ के लिए व्याकुल हुए हैं। इनकी रचना कलापक्ष में संयत और भावपक्ष में रंजनकारिणी है। विशुद्ध काव्य के अतिरिक्त इन्होंने नीति की सूक्तियाँ भी बहुत सी कही हैं जिनमें उक्ति वैचित्रय अपेक्षित होता है। देव की सी ऊँची आकांक्षा या कल्पना जिस प्रकार इनमें कम पाई जाती है उसी प्रकार उनकी सी असफलता भी कहीं नहीं मिलती। जिस बात को ये जिस ढंग से, चाहे वह ढंग बहुत विलक्षण न हो, कहना चाहते थे उस बात को उस ढंग से कहने की पूरी सामर्थ्य इनमें थी।