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"माँ / भाग २ / मुनव्वर राना" के अवतरणों में अंतर

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19:38, 6 जुलाई 2008 का अवतरण

इस चेहरे में पोशीदा है इक क़ौम का चेहरा

चेहरे का उतर जाना मुनासिब नहीं होगा


अब भी चलती है जब आँधी कभी ग़म की ‘राना’

माँ की ममता मुझे बाहों में छुपा लेती है


मुसीबत के दिनों में हमेशा साथ रहती है

पयम्बर क्या परेशानी में उम्मत छोड़ सकता है


पुराना पेड़ बुज़ुर्गों की तरह होता है

यही बहुत है कि ताज़ा हवाएँ देता है


किसी के पास आते हैं तो दरिया सूख जाते हैं

किसी के एड़ियों से रेत का चश्मा निकलता है


जब तक रहा हूँ धूप में चादर बना रहा

मैं अपनी माँ का आखिरी ज़ेवर बना रहा


देख ले ज़ालिम शिकारी ! माँ की ममता देख ले

देख ले चिड़िया तेरे दाने तलक तो आ गई


मुझे भी उसकी जदाई सताती रहती है

उसे भी ख़्वाब में बेटा दिखाई देता है


मुफ़लिसी घर में ठहरने नहीं देती उसको

और परदेस में बेटा नहीं रहने देता


अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता

परिन्दों के न होने पर शजर अच्छा नहीं लगता