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"धूप लेते आना / शैलजा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
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बहुत ठंड है
और गायब है धूप..
तुम्हारी आँखों के कोर
जो पकड़ लेते थे गायब होती धूप को,
आँगन के उन तारों की तरह दिखते हैं आज खाली
जिनपर खोल, फैला देती थी
मैं, अपनी संवेदना के कपड़े…!
आज रोष के बादल छाये हैं
और रह-रह कर
टपकती है
मेरी आँखों से बर्फ...
सुनो,
जल्दी लौटो
और लौटते हुये भूलना न,
धूप लाना..!
हो सकता है
उसकी उजास में
फिर बोलने लगें
हमारी आँखें!