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"नगराज हिमालय / ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन'" के अवतरणों में अंतर

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16:50, 11 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण

हिम के किरीट पेन्ह खड़ा नगराज सोभे,
सुत्थर समाधि लीन जोग में प्रबल हे।
भूप में विराट भूप अवनी मंे अधिराज,
भारत के भाल लेखा लोक में अचल हे।
सरग में चढ़े लेल सीढ़िया बनल रहे,
धवल तुसार से ही सगरो घिरल हे।
बाहर औ भीतर झाँके रोज सतोगुन,
लगे जैसे सन्त बन ध्यान में जुटल हे।

अतुल विराट ई तो कहलावे हिमराज,
भारत में गरिमा के तानले वितान हे।
संकर के अधिवास बनल विमल सोभे,
सगरो बढ़ावे रोज देसवा के मान हे।
सागर पखारे धोवे गोड़वा के बार-बार,
धरती के मानदंड भू के वरदान हे।
झंझा औ झकरोरवा में तनिको न डोले भैया
वैरी के धिरावे धमकावे बलवान हे।

भोरे-भोरे सोना के किरन छूए चोटिया के
पहिरावे जोति के मुकुट अभिराम हो।
चनमा नहावे रोज चाननी के सुधा लेके,
चानी के समान सोभे ललित ललाम हो।
सरग के छितिज से ऊपर उठल रहे,
करे पान देवन के सुख अविराम हो।
साँझ औ ऊसा के सोभा अतुर अपार रहे,
सुरंग प्रवाल तट हँसे छविधाम हो॥

अन्त न दिगन्त के हे वन में बसन्त सोभे,
झूमे देवदारू कोविदार भी अनन्त में।
हँसमुख हिमकन सुखद समीर संग,
इन्द्रधनु सोभा सन थिरके दिगन्त में।
हिमके सजल मेघ घेर के घिरल रहे,
बिजली के संग नाचे थिरके दिगन्त में।
गावे गीत पंछी सब गौरा के सुनावे जस,
गंुजन मधुर भरे भवँरा बसन्त में।

मेघवा के छँहिया में घाट भी उड़ल चले,
सतरँग तितली भी नाचे हिमवन में।
झर झर निरझर झरे धीर चोटिया से,
गिरि के सिखर झूमे नाचे नीलघन में।
मोहक बनल सृंग सुन्दर अनूप लागे,
सुसमा धवल रेंगे गुने कवि मन में।
किन्नर के जोड़िया भी नगराज दरिया में,
रतिरंग राम भरे भाव के भवन में।

गौरा देवी पारवती नगपति कोरवा में,
मारे किलकारी खेले मोहे मन राग में।
लाज से गड़ल रहे ऊसा रानी देख मुख,
गौरा के हिमालय में बोले न विराग में।
चान के कला के लेखा बढ़े गौरा घरवा में,
हुलस हुलस झाँके गावे अनुराग में।
गौरा छवि देख मेना मोद में मगन रहे,
रहे सब लिपटल प्रेम के पराग में।

रितु सब बारी-बारी फेरवा लगावे झूमे,
सुसमा बिखेरे छींटे नभ के वितान में।
मान के सरोवर में सुत्थर कमल झूमे,
मलय समीर बहे सबके परान में।
सिव के ठहाका ठोस बन चमकावे रोज,

अलका बिहँस उठे सोभा के विहान में।
सुत्थर बगुलिया के पाँत उड़े गगना में,
भरे कलधुनि सुभ स्वागत विधान में।

नगराज गरिमा हे महिमा ई देसवा के,
जिनगी हे धरती के जोत से भरल हे।
हरियाली भरे प्रान मनमा में धरती के,
सुत्थर सरगखंड तीरथ बनल हे।
खिखर सिखर उठ उठे ला सिखावे रोज,
जोत भरे दिनरात प्रेम में सनल हे।
सिव सन ध्यान औ समाधि में मगन रहे,
प्रेम के निधान सिव सुत्थर विमल हे॥