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मेरी ये आँखें किसने गढ़ींे?
शिल्पी-कितना अविवेकी वह!
पुतलियों में अनबिंध मोतियों के पानी वाला
जिसने जड़ दिया नौलख हीरा!
और फिर उस पर कर दी गोमेद की पच्चीकारी,
किरणों की तरल चित्रकारी!
और उसमें भर दीं वसन्ती चाँदनियाँ,
पहाड़ी रागिनियाँ,
सपनों के मेले,
सावनी घटाएँ,
और भिनसारी चहचहाहटें!
पर जन्म से आज तक
नाश, मरण व ध्वंस ही तो
इन आँखों से दिखाने थे!
तो फिर ज़रा कुछ सोचता तो सही वह भला आदमी-
काली पुतलियों और नयन-तारों की जगह
डेले में
रख दी होती-
बन्दूक की या सोडावाटर की बॉटल की
कोई रक्ततरंजित गोली ही!