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थरथरा उठता हूँ-
मैं तो!
सूँघते ही यह चपटी, नन्ही-सी, बहुत पुरानी सेंट की शीशी
अपने जीवन की प्रागैतिहासिक!
खुशबू जिसकी मरी नहीं, न जाने क्यों मरती ही नहीं,
ढकना खोने पर भी!
सूँघते ही इसे
कान में कुछ खनक-सी आती है!
पलकों के अन्दर के सपनों की गुलाब की झाड़ियों पर
उतर-सा आता है-
पहाड़ी पर उभरता-सा एक नवमी का चाँद!
ग्रीष्म की छत!
और मोगरे की कलियों का भीनी गंधों में उलझा गजरा!
कुलबुला उठते हैं कुछ मरमराते जालीदार सपने-
मेरे अन्दर!
ढलती रात की-सो बाँसुरी का स्वर
मुझे तैरा ले जाता है कहीं!
मैं सूँघता-सा रह जाता हूँ
इतने दीर्घ समय की-
निंदियारी
गन्ध!