भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"घर / सुनीता जैन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुनीता जैन |अनुवादक= |संग्रह=यह कव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

19:46, 16 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण

तुम जब यहाँ थे
पर मेरे नहीं थे
दिन गुजरते थे बड़ी मुश्किल से।

अब तुम यहाँ नहीं
सिर्फ तुम्हारा दर्द है
दिन गुजरते हैं बड़ी मुश्किल से।

पर तब और अब में-
कुछ फर्क तो है ही-

तब लगता था कि
बालों से खींची जा रही हूँ
कि जमीन नहीं पैरों तले
कि टूट तो गई हूँ पेड़ से
पर घर नहीं मेरा-
न नभ, न धरा, न हवा

अब,
बाल लहराते रहते हैं पीठ पर
पैरों की पकड़ मजबूत हैं
और घर-
कितनी सम्भावनाएँ हैं
सोचो तो जरा-
कुआँ, नहर, खाई, खेत, झाड़ी
या चोंच पक्षी की?