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चौके की बोली से हटकर
बानी द्वारों की।
बाजारू भाषा से बीहड़
है सरकारों की।
रस गंधों के अपने तेवर, छलछंदों के और,
इस संकट का इतिहासों में मिला न कोई दौर;
लिखे पत्र से विलग हुई
मुद्रा हरकारों की।
धर्म-कर्म की भिन्न दिशाएँ, जीवन चौराहा,
देश-काल को खंडित कर हमने पढ़ना चाहा;
चुकी क्रोध-करुणा की भाषा-
चुप मनुहारों की।
स्वर संवादी रीत गए तो उठे विवादों के,
हर्षध्वनि ये नहीं, उभरते बोल विषादों के;
क़ौमों की भाषा है ये या
है बटमारों की?