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जिह्वा पर सरस्वती
ओठों बैठें गणेश,
दाम्पत्य राग, रागिनी गाऊँ मैं अशेष।
अपयश ढोए हमने
यश करते हाथ जले,
ताने-तिश्ने झेले
इन-उनके बुरे-भले।
घर के घर में भोगे, बैठे ठाले विदेश।
प्रौढ़ा हो गई समझ
बदले सब सरोकार,
होने-होने को है
चादर अब तार-तार।
क्या मानी होने के? सूने वर्जित प्रवेश।
लगनी थी, लगी नहीं-
काई या फफूँदों पर,
दृष्टि लगाए नाहक
मूल छोड़ सूदों पर;
छोड़ें ये गणित अगर छोड़ सकें कमोवेश।
हो लें हो सकेें अगर बूँद-बूँद आज शेष।