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23:38, 13 मई 2018 के समय का अवतरण

आज अपने आपसे हम डर गए।
आइना क्या सामने तुम धर गए!

कनपटी के बाल-
नक्शे झुर्रियों के-

एक लम्बी जिं़दगी कम कर गए।
झुक गए कंधे-
उमर के बोझ से,
मौत से पहले अचानक मर गए।

हम मचानों पर-
बँधे देखा किए,
पशु बनैले खड़ी फसलें चर गए।

साँप भीतर सिर-
उठाए हैं अभी,
पाहुने आए पलटकर घर गए।

रास्ता रोके खड़ीं-
वंध्या हवाएँ,
फूल-फूले चार दिन में झर गए।
आज अपने आपसे हम डर गए।