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10:00, 14 मई 2018 के समय का अवतरण
लाजिमी तो नहीं था पर
हम हुए,
होते रहे अपने दिनों में।
प्रभु! सुखी हैं वो कि जो करके बहाने
चैन से सोते रहे अपने दिनों में।
पुनर्जन्मों की असंख्यक शृंखला में
काल का आयाम मद्धिम हो रहा है,
व्यापकता है देश केवल, देश पर भी
भाग्यवादी सोच हाकिम हो रहा है।
धर्म की परिपाटियों को
बोझ-सा ढोते रहे अपने दिनों में।
युद्धक्षेत्रों: धर्मक्षेत्रों में कहाँ अब-
कृष्ण द्वैपायन कहाँ गीता रचेंगे?
कर्ण के संधान से गर बच गए तो-
पार्थ के शर से कहाँ कैसे बचेंगे?
रक्त की बूँदें कहीं पर
श्वेद कण
बोते रहे अपने दिनों में।
किस लिए पैदा हुए, जीते रहे क्यों?
कोई बतलाता नहीं, फुर्सत किसे है।
गेहुँओं के साथ घुन-सा रोज़ ही तो-
कठिन पाटों बीच मेरा मन पिसे है।
छोड़कर अपने निरंतर
दाग उनके
आँसुओं धोते रहे हैं अपने दिनों में।