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10:14, 14 मई 2018 के समय का अवतरण
हो न सका जो
उसका रोना,
रोने के हम, तुम सब आदी,
रमजानी के दादा हों
या रामलखन की हो फिर दादी।
काने चले बताने अंधों की कमज़ोरी,
बहरों के हाथों में है गूँगों की डोरी।
अपने किए-घरे पर उठकर-
हम ही फेरा करते पानी,
कब निर्विघ्न हुए हैं गौने
हँसते हुए, हुई कब शादी।
श्वेत-स्याह होते रहते ये रिश्ते-नाते,
जीवन जिया हमेशा हमने रोते-गाते।
इनके हुक्के, उनकी चिलमें
भरती बैठी रही जवानी
लेती रही सलामें हमसे
लँगड़ी कुर्सी, गँदली गादी।
ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा भगे जा रहे,
भगदड़ में देखा तो अपने सगे जा रहे।
नहीं सुन रहा, कोई किसी को-
यही देख होती हैरानी,
रहे नहीं पत-पानी वाले
वादी हो या फिर प्रतिवादी।