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10:20, 14 मई 2018 के समय का अवतरण
वो ओढ़े बगुलों सी उजली,
अपनी लेकिन मटमैली है।
मोटी-झोंटी, खरे खदे की कामचलाऊ है ये अपनी,
जीवित रहते चादर है ये, मर जाने पर होगी क़फनी।
अपनी तो खाली-खूली पर
उनकी भरी हुई थैली है।
पाँव ढके तो सिर खुल जाता, सिर ढाँका तो पाँव उधारे,
मक्का आया वहीं-वहीं को, जिन सिक्तों में पाँव पसारे।
अपनी सीधी-साधी, लेकिन
ठगिनी उनकी नखरैली है।
छूटी नहीं गृहस्थी अब तक, हो न सका जोगी सन्यासी,
ना जाने है ये तीरथव्रत, नहीं कर सका काबा-काशी।
हम जुलूस-से हो न सके तो
हमसे हो न सकी रैली है।