भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"लौट आ ओ मूर्खता / नईम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

11:03, 14 मई 2018 के समय का अवतरण

लौट आ ओ मूर्खता! घर लौट आ!!
और कब तक लगाए
फिरता रहूँ मैं मुखोटा?

अक़्लबंदी से बहुत,
हम उम्र केवल जी लिए।
ग़ैर के अक्सर उधेड़े,
स्वतः के बखिये सिए।

आइने चमकाए, झोंकी धूल
चातुरी, चालाकियाँ की जमा।
लौट आ ओ मूर्खता! घर लौट आ!!

हम नहीं हम रह गए,
यूँ सभी के जैसे हुए।
पागलों से कटाकर
अब झाँकते फिरते कुएँ।

गै़र से बदतर हुआ है
ज़माना अपना सगा।
लौट आ ओ मूर्खता! घर लौट आ!!

जिं़दगी होती कहाँ है-
समझदारी, सलीक़ों में?
आदमी को आदमी ये
बदल देते फरीक़ों में।

जिं़दगी से कर रहे
ख़ारिज हमें ये रहनुमाँ।
लौट आ ओ मूर्खता! घर लौट आ!!