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15:32, 14 मई 2018 के समय का अवतरण
रेशम की साड़ी, जरी की किनार,
रमैया की दुल्हन ने लूटा बजार।
भूखे जुलाहे, रँगारे फकीर,
इन्हें रोटियाँ दें कहाँ से कबीर?
सुलगते रहे भाईचारे यहाँ-
अंधे हैं राजे तो अंधे बजीर।
ये काबे का काशी से कैसा करार
कि पतझर-सी आई है अबके बहार।
चलो बाँस को उठ के बाजा करें,
किसी मर्द बच्चे को राँझा करें।
बुझाएँ सुलगती हुई छातियाँ-
भरे घाव को फिर न ताज़ा करें।
अवध आगरे हों कि बूढ़े विहार,
ये शहनाई सहमी लजाई सितार।
पहरुए बिजूकों-से क्यों सो गए?
जमादार पथ से कहीं खो गए।
फरीदे औ नानक भी लाचार हैं-
महज ग्रंथ साहब को हम ढो रहे।
किसी के भी सिर भूत क्यों हो सवार?
न डालें तवारीख का हम अचार।