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आप आए तो आइए भीतर
ऐसी जल्दी भी क्या है जाने की-
जाइए कुछ न कुछ तो खा-पीकर।
यूँ तो फुर्सत किसे, कहाँ मिलती,
हर कली वक्त पर नहीं खिलती;
पेड़ के पेड़ झूमते थे कभी-
अब कोई शाख तक नहीं हिलती।
फर्क पड़ता नहीं ज़रा-सा भी
झुनझुनूँ द्वार आए या सीकर।
वक़्त का यूँ मिजाज ठीक नहीं,
मौत मिल जाए किंतु भीख नहीं;
अपने ताबूत अपने कंधों पर
कोई शामिल नहीं, शरीक नहीं;
जंगलों से ही जब रसाई नहीं-
हों तो हों ये चिनार वो कीकर।
इस्तगासे में क्या बुना जाए,
शोर बरपा है क्या सुना जाए?
भीड़ आ जाए जब दुआरों पर
किसको छोड़ा, किसे चुना जाए?
जिनकी कल हैसियत थी हँसों-सी
आज लगते बटेर या तीतर।
आप आए तो आइए भीतर।