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"नाई बहार / 9 / भिखारी ठाकुर" के अवतरणों में अंतर

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प्रसंग:

कर्मकाण्डों में ब्राह्मण अपने लोभ के कारण जजमान का शोषण करते हैं; किंतु ब्राह्मण वर्ग समान रूप से सहयोगी नाई जाति को उसका वास्तविक हक या हिस्सा नहीं देते, जो दुखद है।

दोहा

कहीं खोम का दसवां में, महापात्र ना जास।
तेकर पितर-मेरउनी, ब्राह्मण कके तुरलन आस॥

चौपाई

बाँचल रहे सेहू सहल। कहीं जे ममिला कइसन भइल॥
नाट जो रहे खोम-घरे असरा। तेहू में ब्राह्मण के मन पसरा॥
जेकर सदा ज्ञान के काम। से केहू फुरमावत दाम॥
कबहूँ केहू ना तनिको पूछो काहे नाउ जइहन छूछे॥
मेहनत के ना देली दाम। कइसे पिता जइहन सुरधाम॥
जे ब्राह्मण कुल-पूज्य कहवलन। से झट दे रुपया फुरमवलन॥
लालच रोआं कइलस भारी। रुपिया में डूबल बा नारी॥
जग में जो कुछ बगदल काम। नाउ भइलन अजस के धाम॥
एही दुःख में दिलीं लिख। तनिक ना लउकल अमृत-बिख।
नइखीं विप्र के निन्दा करत। हक बिनु नाउ बाड़न मरत॥
एही से होखत बा दरखास। चारो बरन मिली पुराई आस॥
बिप्र से बैर करह मत भाई. गरज सुनावहु अरज लगाई॥

वार्त्तिक:

जइसन 'रामचरित मानस' लिखल बा:-

दोहा

मन-क्रम-बचन कपट तजि, जो कर भूसुर सेवा।
मोहि समेत विरंचि शिव, बस ताके सब देवा॥

चौपाई

मसक दंत बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किये कुलनासा॥
कवच अभेद विप्र पद-पूजा। यहि सम विजय उपाय न दूजा॥