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तुम टिमटिम दीपक के उदोत-सी दीपित;
तुम तड़ित पुष्प जो मेघ-विपिन में विम्बित।
पर्वत के कण्ठे में मँूगे-सी निखरी;
शोणित की बूँदों-सी भूतल पर बिखरी।
यौवन पलाश की अरुणाई-सी लहकी;
रक्तिम अंगारे की चिनगी-सी डहकी।
रूपसी धरा के हरित फिरन में फबती;
ज्यों रागारुण सलमे की बूटी लगती।
अथवा वनदेवी के उरोज पर मंडित;
ज्यों हर्म्य तारक प्रसून का गुम्फित।
कंटक-संकुल जीवन-घाटी में पलती;
दरकी छाती के दाह-सदृश तुम जलती।
(रचना-काल: नवम्बर, 1941। ‘विशाल भारत’, अगस्त, 1943 में प्रकाशित।)