"प्रवासी पन्थी / रामइकबाल सिंह 'राकेश'" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामइकबाल सिंह 'राकेश' |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
13:04, 18 मई 2018 के समय का अवतरण
सखि, मैं पथिक, पथ निर्वाण।
सादि हम; पथ कठिन, दुर्गम, अनाद्यन्त महान;
सखि, मैं पथिक, पथ निर्वाण।
निविड़ वन खर-कंटकाकुल
घन गहन गिरि-गुहा-संकुल
दुराराध्य अगाह मग में
जड़ित-पद; मन, बुद्धि व्याकुल।
दूर, -इस दुर्घट डगर पर चिर एकाकी प्राण;
सखि, मैं पथिक, पथ निर्वाण।
ईशिता-चिच्छक्ति कुण्ठित
विकल इन्द्रिय, वक्ष कम्पित,
सिद्धि-यष्टि-विहीन, कदली-
विटप-सा तन सार-वंचित।
मलिन नयन, उत्तुंग दिनमणि का निपट अवसान;
सखि, मैं पथिक, पथ निर्वाण।
भ्रमित युग-युग से चिरन्तन
नित्य नूतन चिर पुरातन,
जन्म के अक्षांश पथ पर
मृत्यु का ताण्डव-विवर्त्तन।
भँवर-जल के भौंतुवा-से चर-अचर गतिवान
सखि, मैं पथिक, पथ निर्वाण।
चिर पिपासित स्वाति-जल का
पर, बरसता कण अनल का
माँगता जीवन-सुधा मैं
किन्तु, मिलता फल गरल का।
अति निराली नीति री इस पंथ की उषमा न;
सखि, मैं पथिक, पथ निर्वाण।
चकित चलता दूर जितना
क्षितिज लगता दूर उतना,
अतुल सुरसा-सा बढ़ाता।
बदन उतना अधिक अपना।
प्राप्य क्या दुष्प्राय? क्या यह मग अगम आसान?
सखि, मैं पथिक, पथ निर्वाण।
पंक क्या घनसार होगा?
धूम क्या अंगार होगा?
सर जलधि बन, जलधि सर बन
क्या न एकाकार होगा?
चिर युगावधि से यही मैं सोचता नादान;
सखि, मैं पथिक, पथ निर्वाण।
(रचना-काल: जनवरी, 1941। ‘हंस’, जुलाई, 1941 में प्रकाशित।)