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"कुहेलिका / रामइकबाल सिंह 'राकेश'" के अवतरणों में अंतर

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अहंवाद की धूमिल सन्ध्या-
सी, अनन्त की छाया-सी;
मृगतृष्णा-सी, व्याप्त तमिस्रा की
काया-सी, माया-सी।

तुम वियोग के दुखोच्छ्वास-सी
व्याकुलता, विह्वलता-सी;
भीम भ्रान्ति-सी, सौभ्य शान्ति-सी
नीरवता, निर्जनता-सी।

संसृति के सूने पृष्ठों पर
चिन्ताओं की स्याही-सी;
जड़ता की काली चादर-सी
अहमिति की परछाँही-सी।

उठ संशय की श्याम-घटा-सी
फैल रही मटियाली-सी;
मन्द प्रभा-सी, हत आभा-सी;
मोह-निशा अँधियाली-सी।

गगनांगण में, विदिक्-विदिक् में
खिंच आई तुम काई-सी;
गूढ़ कल्पना की सहचरि-सी
अन्ध-धूम्र-सी झाईं-सी।

भावों के मन्थर प्रवाह-सी
तन्मयता तल्लीनता-सी;
तुम अमूर्त की मूर्त कल्पना-
सी, रुग्णा अति मलिना-सी।

कालरात्रि की दृग्घूँघट-सी
निबिड़ावरण अविद्या-सी;
सायँ-सायँ-सी, मलिनकाय-सी
दुश्छेद्या, दुर्भेद्या-सी।

तुम मायाविनि प्रबल ताड़का-
सी, धर वेष अशिव विकराल;
ज्ञान-राम अभिराम मिटाने
दौड़ी दल-बल साज विशाल।

नियति-नटी के अन्तर्पट पर
अमिट यवनिका-सी अज्ञात;
क्षुधित व्यथा-सी, मर्म कथा-सी
दुविधा के तम-सी उद्भ्रान्त।

उर्णनाभ के उर्णतन्तु-सी
ग्रन्थिरुजा अरुझाई-सी;
विस्मृति की धँुधली रेखा-सी
विस्मयता गहराई-सी।

इदं, अहं के चिर संशय-सी
विकल रागिनी के लय-सी;
दिगदिगन्त के ऊर्ध्व श्वास-सी
द्वैत-कल्पना के भय-सी।

जन्म-मृत्यु के सन्धि-स्थल-सी
विस्मृत स्वप्न-कहानी-सी;
मनस्ताप-सी, विरह-भाप-सी
तुम विभावरी रानी-सी।

तेरी इस छाया के पीछे
छिपा हुआ-सा कुछ अज्ञात;
एक कल्पना की रेखा-सी
प्रत्याशा का स्वर्ण प्रभात।

कुछ परिचित-सा, कुछ विस्मृत-सा
कुछ शाश्वतता का मकरन्द;
सत्यं, शिवम्, सुन्दरम्-सा कुछ
कुछ अविकल अक्षय आनन्द।

कुन्द इन्दु-सा, बिम्ब-विन्दु-सा
सौरभ-सुषमा का आगार;
अमित व्यथा में महामोद-सा
जीवन का अनुपम त्यौहार।

रजत चाँदनी के मर्मर-सा
दुग्ध-फेन-सा स्नेह अपार;
श्वेत-शंख-सा, हंस-पंख-सा
जुही-गच्छ का-सा उद्गार।

हास-लास-सा, नव विकास-सा
प्रांजलता का-सा झंकार;
कोमलता-सा पावनता-सा
नूतनता का-सा, गुंजार।

इन्द्रधनुष-सा, उर अकलुष-सा,
अमृत आशा-सा आषाढ़;
अमल उपल-सा मृदु कुड्मल-सा
विरल नखत का-सा संसार।

जहाँ हरित परिधान विजन में
जहाँ अमर यौवन तन में;
जहाँ चिरन्तन गान पवन में
जहाँ सुमन निःस्वन घन में।

जहाँ प्रेम का दोला-मंगल
शैशव-सा, उमंग, उल्लास;
मनमोहन की मधु मिश्री-सा
मीठे स्वप्नों का आवास।

ताथेई ताथेई तन-नन
प्राणों का शिंजन गतिमान;
पर्ण-पर्ण में, वर्ण-वर्ण में
अलियांे का यौवन जयगान।

श्याम रूप के रासतत्व-सा
कुमुदकला का-सा अभिसार;
मनोविज्ञान के तारभ्य-सा
विमल वीचि का-सा शृंगार।

कमल-नाल-सा, सुमन-माल-सा
कालिन्दी-सा मदिर विहाग;
मलय अनिल-सा, सहज-सलिल-सा
मुजुलता का-सा अनुराग।

शब्द-शब्द में प्रिय स्पन्दन-सा
आरो हावरोह आह्लाद;
गन्ध-पवन के उद्वेलन-सा
निर्झर-सा अजस्र सम्वाद।

मुग्धा के भावुक दुलार से
जहाँ एक गोपन आख्यान;
फूटे रहे अस्फुट बुद्बुद में
कितने भाव-सुमन अनजान।

आदि रूपसी की किंकिणि-ध्वनि
कलातीर्थ, निर्वाण-निलय;
शाश्वत संगम के चिर उद्गम
अमा गहन के अरुणोदय।

सृष्टि सूक्त का द्रष्टा अभिनव
शुक्रदीप का छवि-संजय;
श्रुति-मंजीर-स्वनित-रव अहरह
मुक्तिबीज परिपूत-हृदय।

अभ्रलीह कल्पना शृंग से
करुणा का कंचन-कासार;
भर कुलाँच हरिणी-शावक से
मचल बहा वन-अंचल-द्वार।

फूलों के भृंगारों में भर
मधु कर-पल्लव से सुकुमार;
प्रेम-भरी कविता गरबीली
लुटा रही यौवन का भार।

चन्द्रकान्त की सान्द्र ज्योत्स्ना
में सस्मित मानस वपुमान;
पुष्करिणी में पùराग-से
विवस्वान-से उगे अजान।

खंजन के चंचल चितवन-से
शरद-शिशिर के तर्जन-से;
मधुमय स्वर से सिंचित क्षण-क्षण
मृदुल वीण के क्वण-क्वण से।

नीलगगन के चन्द्रहास-से
अनिलऊर्मि रिमझिम घन-से;
सामगान-से, सोम-पान-से
परिरम्भण पल्लव-तन-से।

तुम घन के निःश्वास सघन हो
विरह-सिन्धु के धूम अपार;
परिवेष्टित कर क्षितिज-मेखला
छा जाती द्रुत परिखाकार।

अणु की गति, लिपि अमिट नियति की
मदनत पलकों के मृदु प्रातः;
तुम अनादि के हो रहस्यपट
नींद-विपिन के तन्द्रिल बात।

तुली तूलि-सी उड़ अम्बर में
गोराज-सी बन छायाकार;
विस्मृति के तारों से बुनती
सुधि का, विस्मय का संसार।

हे द्विधा की मलिन शून्यते
निबिड़ निराशा के संघात;
अरे विवर विश्रब्ध व्योम के
घनीभूत परमाणु नितान्त।

कालसर्प का दृप्त फण अरी
रौद्र नृत्य की वृत्ति विराट;
ओ अभाव की धुँधली लेखा
अनतरिक्ष के बन्द कपाट।

री छलना की आवर्तिक गति
अरी मौन चिन्ता, अभिशाप;
सृष्टि-कुण्ड में होम-भस्म-सी
घनीभूत भौतिक परिताप।

मेरा यह संसार तुम्ही-सा
अखिल अन्ध तम-से आक्रान्त;
धूमावृत नभ के परदे में
छिपा हुआ आगम अज्ञात।

मायाविनि अयि मृगमरीचिके
हटा कपट का मायाजाल;
संसृति का शुचि सत्य कलेवर
हमें देखने दो तत्काल।

(रचना-काल: जनवरी, 1938। ‘हंस’, फरवरी, 1941 में प्रकाशित।)