"करधई / रामइकबाल सिंह 'राकेश'" के अवतरणों में अंतर
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पहने नूतन कलछौंह फिरन
लहराती खड़ी करधई है;
करती हरीतिमा का प्रसार
वन-पथ में जनगण के दृग में।
साँचे में ढाले गोल-गोल
औ’ तरशे सजे क़तारों में;
जिनके शोभन
तितली के डैनों-से पत्तों की हैं चितवन।
बरसाती नशा जगा देती
रंगों के जादू जनमन में;
उर में तब उठती है उचंग
कैसे जाऊँ कुरबान आज मैं इन पर।
आते जब पुरवे झूम-झूम
शाखों की जिनमें ठुमकी है;
भरती उड़ान
गा उठती सैरे बार-बार!
इनने यह रूप जानलेवा कैसे पाया
पतरिंगा-सा पैरहन हरा?
यह रूप नयनमोहन इनने पाया भू से
औ’ चटक रंग पैरहन हरा!
पोषण इनका होता है खाकी मिट्टी से
धरती के ही अन्दर-अन्दर;
चरणों में उपलों के पायल
कलियों के झुमके कानों में।
यह रूपकुँआरी जंगल की
कर सकती क्या वह दुल्हन है फुलबगियों की;
इनकी समता
जो रहती बन्द दिवारों में?
इनकी गुलरू पिण्डलियों में
नयनों के इनके डोरों में;
है वेत्रवती का स्वर-मन्थन
मस्तानापन गुंजान गहन।
चटियल बुन्देली मिट्टी का रस वशीकरण;
जिसमें, जिस मिट्टी में सोए बाँकुरे शूर
कर अन्यायों से जंग, खून को बना खाद।
(रचना-काल: अगस्त, 1948। ‘निराला’, अक्तूबर, 1948 में प्रकाशित।)