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आसावरी ध्रुपद

पहन स्वर्ण अलंकार, भेद अन्ध तमस-जल,
प्रकट हुआ अम्बर में दीप्तिमान उषःकाल।
मनोरम्य उषःकाल।

चमक रहे गिरि-कन्दर, गृह-प्रांगण, पन्थ-शान्त,
छन्दमुखर लता-कु´्ज, वन-उपवन, ग्राम-प्रान्त,
हेमलिप्त, स्नेहसिक्त, भूमण्डल सौम्य कान्त,
नभ की पुष्करिणी में विकसित है कमल लाल।
प्राणरूप उषःकाल।

परम दिव्य निरुपम लावण्य-सिन्धु स्यन्दमान,
जिसमें आनन्दरूप सुधा-स्रोत विद्यमान,
पùराग, विद्रुम, मुक्ता, हिरण्य भ्राजमान,
बिखर गए मोहमयी रजनी के ऋक्ष-माल।
मरणरहित उषःकाल।

छिड़क रही उषा-वधू वसुधा पर रंग घोल,
पर्ण-नीड़-कक्ष त्याग विहग-वृन्द रहे बोल,
तन्द्रारत नयन पवन बार-बार रहा खोल,
जागो व्याकुल बिहाल हे मेरे मन-मराल!
मंगलमय उषःकाल।

(‘विशालभारत’, अक्तूबर, 1963)