"काली-दर्शन / रामइकबाल सिंह 'राकेश'" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामइकबाल सिंह 'राकेश' |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
|संग्रह=गंधज्वार / रामइकबाल सिंह 'राकेश' | |संग्रह=गंधज्वार / रामइकबाल सिंह 'राकेश' | ||
}} | }} | ||
− | {{ | + | {{KKCatKavita}} |
<poem> | <poem> | ||
परमा आद्याशक्ति चिन्मयी धर्मचारिणी, | परमा आद्याशक्ति चिन्मयी धर्मचारिणी, |
18:33, 18 मई 2018 के समय का अवतरण
परमा आद्याशक्ति चिन्मयी धर्मचारिणी,
विश्वप्राणरूपा देवी तुम वज्रधारिणी।
कालरूपिणी महाशक्ति तुम भुवनप्रतिष्ठित-
क्या न तुम्हारी ही माया से जीवन ज्योतित?
भिन्न-भिन्न परिभाषाओं से तुम परिभाषित,
प्राण, भूति, ध्वनि, तेज, प्रभा तुम से परिचालित,
तुम सब भूतों के अन्तर्मन में अन्तर्हित,
शक्ति, दया, चैतन्यरूप से दीप्त प्रकाशित।
पुष्पगन्धिनी, तुम ही निद्रा, तन्द्रा, श्री, धृति,
शान्ति, पिपासा, लज्जा, वा´्छा, मेधा, धी, स्मृति।
सभी तुम्हारे रूप शिवा, वारुणी, वैष्णवी,
रौद्री, वाराही, कौबेरी और वासवी।
जननि तुम्हारे रूप देव, गन्धर्व, असुर, नर,
वेद-अवेद, अगोचर-गोचर, अन्तर बाहर।
पणतपालिके, वारिरूप में शीतल होकर,
करती निखिल भुवन को तुम परितृप्त निरन्तर।
विष्णु, प्रजापति, ब्रह्मदेव को तुम कर धारण,
रूद्रों-वसुओं के रूपों में करती विचरण।
करने में न समर्थ तुम्हारे गुण का वर्णन,
शेष सहस्र मुखों से, सुर, शंकर, चतुरानन।
तुम्हें छोड़ कर कौन दूसरी शक्ति चिरन्तन,
निगम-आगमों में जिसका विवरण-विश्लेषण?
तुम अनन्त वैष्णवी शक्ति कल्याण दान कर-
मोक्ष कराती प्राप्त धरा पर हर्षित होकर।
देवि, त्रिशूल तुम्हारी महिमा का प्रख्यापक,
ज्वालामय विकराल असुरनाशक संहाकरक।
करे हमारा दारुण भवभयहरण दुखशमन,
कालकंठिनी, नाम तुम्हारा कलुष निकन्दन।
मा, लाते सन्देश तुम्हारा प्रबल प्रभ´्जन,
सागरतल के जलमण्डल पर लहर-भँवर बन।
नित्य हमारे पास, व्योम में परतीले घन,
झोंका लगते ही गिरते झड़कर परागकण।
करते सदा तुम्हारे नखदर्पण का शोभन,
सहस्रार में साधक तन्मयता से चिन्तन।
पाते नहीं तुम्हारे दर्शन मा, षड्दर्शन,
कैसी हो? पाता न समझ मेरा चेतन मन।
ब्रह्माण्डों की जननी, तुम मेरे आलम्बन,
देश-काल से परे तुम्हारा तत्त्व विलक्षण।
आश्रय दो अन्तर के स्नेहा´्चल में पावन,
तुम शरण्य हो, करता शरण ग्रहण मैं अशरण।
बसा रहे वह रूप तुम्हारा लोकविमोहन,
हृदय-हृदय में, जो लय की लीला में कारण।
होता रहे तुम्हारे चरणाम्बुज का पावन,
जगदम्बे, अन्तर्मन से चिन्तन-आराधन।