"सनातन / गिरिजाकुमार माथुर" के अवतरणों में अंतर
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पृथ्वी का घूमता गोलक अब आकार में धीरे-धीेरे छोटा होने लगता है और इस प्रक्रिया के साथ ही दृश्य पीछे की ओर हटता चला जाता है। पटभूमि की अगाध, अंतहीन काली गहराई में दूर तक नक्षत्रपुंज और तारागंगाओं के सफेद छपके बिखरे खील-बताशों की तरह निकलते चले जाते हैं जैसे हल्के, फोके हिम-जमे फूलों से सजा एक गतिमय वृहद-चित्र हम देख रहे हों। पृथ्वी धीरे-धीरे छोटी होकर उन्ही में से एक हो जाती है। पृथ्वी के छोटे होने और समूची दृश्यावलि के पीछे हटने की क्रियाएँ एक साथ घटित होती हैं जिनकी दुहरी गति के कारण निरंतर वर्धमान अंतरिक्ष का प्रभाव अंकित होता है। सहसा अगणित द्यौतिसों के पार प्रवेश करता एक गतिशील नील चाप चमक उठता है जो एक साथ उन पिंडों को आवृृत्त भी किये हुए है और उनके पार भी जाता दिखाई देता है। कुछ देर बाद यह चाप तीन विभिन्न रंगों में परिवर्तित हो जाता है और लहराकर एक समतल पर उतरने लगता है। इनमें से एक चाप लाल रंग का बड़े कुंडल वाला है, दूसरा नीले रंग के छोटे कुंडल बनाता है और लाल चाप के कुंडलों को काटता जाता है। दोनों के बीच कुछ-कुछ क्षणों पर एक पीत चाप गिरता है, फिर विलीन हो जाता है, फिर उभरता है और विलीन होता है। इस तरह तीनों चाप एक पेचदार रंगीन फिरकनी की तरह समतल पर कुछ देर नाचते रहते हैं। उनके त्रिवर्ण प्रकाश में अनेक छायाकृतियों और देहाभासों की अटूट पंक्तियाँ निकलती चली जाती हैं जिनके वस्त्र तीन रंग के गोल शीशों से बने हुए हैं। प्रत्येक शीशे में रंगालोक दुहरा-तिहरा प्रतिबिम्बित हो रहा है। फिर चार भिन्न स्वरों में निबद्ध स्टीरिओफोनिक ध्वनि उठती है।:
ओ सनातन काल
बूँद बनकर वह गए जिसमें अनंत त्रिकाल
ओ अमापी काल
डोर में जिसके बँधा है
यह खमंडल व्याल
द्वीपों-विश्वों की अवान्तर दूरियों के भान
सृष्टि के अस्तित्व की
संज्ञा-विगत पहिचान
वर्ण से अनबिंधा
धावित अंतराल अपार
वेग की अंतिम शिराओं के
परस से पार
एक ही घटना
विभाजित किंतु है अनुभूति
शेष होकर भी
युगों के बाद उदित प्रतीति,
कालक्रम की शृंखला में
सत्य का अटकाव
कार्य का
कारण गए के बाद आविर्भाव
साथ सब अस्तित्व
पर कितना विपर्य विधान
वर्तमान, भविष्य गत के
भिन्न सब प्रतिमान
भिन्न सब अनुभव
विभावन के सभी आधार
एक ही संकेत के
कितने विलग झंकार
सत्य सारे समानान्तर
वस्तुएँ, विन्यास
अर्थ सब संदर्भगत
-अप्रमाण हर विश्वास
निमिष-पल की यवनिकाएँ
हैं पड़ीं अविराम
खुल न पाते
सृष्टियों के यह अपूर्ण विराम
दूर की अनुभूतियों का
स्वप्न-सा आभास
पास है कोई अचीन्हा
भिन्न सा अनुप्रास
व्यंजनाओं की प्रतिध्वनि सा
यही विश्वास
बाँधता हमको
विराट प्रतीतियों के साथ
वस्तुओं को अर्थ देता
वह महत् अभिप्राय
काल भी जिस प्रक्रिया का
क्षुद्र सा पर्याय
लय विलय के बीच वह
रूपांतरण की ताल
ओ सनातन काल
बूँद बनकर बह गए जिसमें अनन्त त्रिकाल।