"अंतराल / गिरिजाकुमार माथुर" के अवतरणों में अंतर
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19:05, 18 मई 2018 के समय का अवतरण
अंतरिक्ष की कोख में अब सारे दृश्य विलीन होते चले जाते हैं। तह पर निर्वर्ण तहें सिमटती जाती हैं, जिनकी सिलवटों में नक्षत्र-पुंज, तारामंडल, आकाशगंगाएँ डूबकर विलुप्त होती जाती हैं। थोड़ी देर बाद कुछ शेष नहीं रहता, केवल कराल दिक्का अपार, अभेद्य शून्य रह जाता है। सीमातीत रिक्तता में कभी-कभी कुछ हल्की चिलकन का-सा आभास होता है, जैसे रंगीन अबीर के गुबार हवा के झोंको के साथ सब उड़ जायँ, सिर्फ कभी, बहुत देर बाद, अभ्रक का कोई बहुत छोटा, स्वरूपहीन टुकड़ा दृष्टि के तिरछेपन पर आकर चमक जाय। लगता है जैसे दूर-दूर पर सृष्टिरचना के मूल उपकरण तेज-सूक्ष्म के रूप में मुक्त विचर रहे हों और वस्तुओं के आदि समीकरणों का जन्म हम देख रहे हो:
परम सूक्ष्मों, महीयानों के
अनूल वक्षों में
छुपकर निमग्न
अंतरालों के कूप गोल
शून्यों की अजात संधियाँ-
एक प्रतिलिपित्र, अशब्द छायाछद
परिधियों पर झलकते
डिम्ब-कोरों की परछाइयाँ समेटे
अज्ञात से अज्ञात तक
रूपायित
यह अवस्तुओं का विराट श्यामांशुक
निमिष पलों में पलटकर झुका हुआ
काली-झीन दूरियों तक
सिलवटों का सिलसिला
उभरे कहीं बीच में
छोटी नगण्य गाँठों से
कपड़े के एकांत फूल
बूँदों से टँके सलमे सितारे
-आदिम कालिमाओं के
अडिग हाशिए-
तैरते है जिनमें
स्वच्छंद छिन्न तेज
अमूर्तों के पूर्व रूप
कटे बीज अणुओं के
अर्ध सृष्टियों के अजन्में समीकरण
यह अशेष
आद्यकोख की अकंप खोखल
बनता हुआ कच्चे रवे सा
अभंग पुद्गल
सद्य प्राक् भूतों के साथ ही विपर्य-भूत
वस्तुओं के साथ ही प्रतीप-वस्तु
विलोम तेजाक्षर
जो असंख्य मीलों में व्याप्त
सृष्टि-रज के तिमिर को
तारा-बादलों के
बेसूझ ग्रथित निबिड़ को
अनरुके वेधता, निःशेष करता चला जाता है
वह ऋणात्म, निषेधांश
तत्वकोषों को चीरता
बिन टकराए समाहित हुए
झागी-काँच से निर्मित
फिल्मों से खुलते हुए
काले इस दर्पण में
वेगवान निर्भार दृश्य सभी
ठहरे हुए लगते हैं
एक आनुपातिक कालहीनता में
क्या है, अविनश्वर
रचना से रचना की ओर
सारी प्ररोचना?
अथवा है
अंतिमांत क्रमिक जरा की ओर?
आज यह परिधियाँ
विस्फारों में भाग रहीं-
क्या फिर यह लौटती कुंतलीय सिंधु लहरों सी
वामवेग पीकर
कभी वापिस आ जायँगी
संपूर्ण-शेष
एक नाभि बन जायँगी
सारे अनुबिंदुओं की मिटी हुई सरणि पार
एक वह अरंध्र बिंदु
आगे जहाँ लय का स्थान ही न होगा कहीं
काल के प्रवाह को दिशाएँ न होंगी कहीं
सब कुछ समाप्त
लय भी विलयन की
निवृत्तियों में व्याप्त।
या किसी अनाहत
ब्रह्मांडीय अक्ष पर
सिद्धगीत संचरित
विराट कुंडलकमानी यह
खुलती है-कम होती-खुलती है
चलती है
अपने ही संक्रमित
अन्तर्पदार्थों की परात्पर गुणाग्नि से
पेचों के खुलने में
खिलकर लेते हैं जन्म
चमकीले छपकों से अनगिनती ब्रह्मांड
पीछे हटने में
कम होने में
प्रतिक्रम से खंड प्रलय होती है
चक्रमित विश्वों की परिधियाँ
अक्षों से हट सहसा टकरा जातीं
चूर हो जाते बिल्लौर से सृष्टि-द्वीप
तारा-राशियाँ पिसे मोती सी
बुझती फुलझड़ियाँ नक्षत्रों की
लाखों व्योम-कोसों में
गरम रोशनी भरतीं
छूटकर गिरती आतिशबाज़ी
उड्ड-झुंडों की
भभककर भाप बन जाते
असंख्य सौरमंडल
गँदले, निर्ज्योति ग्रह, दैत्य-ग्रह
पृथ्वियाँ-
क्या है अभिप्राय
इस क्रमागत विकल्प का
सृजन, विखंडन
अस्ति-नास्ति
असंकल्प का?
क्या है अर्थ
दृश्य औ’ अदृश्यों की सत्ता का
मात्र वस्तुओं की
हो सकती अर्थवत्ता क्या!
जीवन का उद्भाव
प्रतिकृतियों की बिम्बधार
जन्म औ’ मरण की-
आवृत्तियों के चीत्कार
क्या है निष्प्रयोजन
यह क्षतिमय संयोजना
बनने-बिगड़ने की अर्थहीन वेदना?
शून्यों से लेती जन्म
सृष्टि यह मनोरमा
भेद अनस्तित्वों की
बोधशून्य कालिमा
चमकीले सूर्यों की
सोनपीत थालियाँ
कुंडलमय झालर की
पेचदार पाँतियाँ
रंगों के मंडल में
प्रतिमंडल रंग भरे
जिस अबीर मिहिका से
वर्तुल ग्रह निकल रहे
कोटि विश्व-द्वीपों की
अनगिन मंदाकिनी
श्वेत बादलों सी
स्वप्न-छाया मनभाविनी
कितने अज्ञात लोक
कितनी गुप्त भूमियाँ
कितने जीवरूपां की
प्रमाणहीन सूचियाँ
कितने अप्रकाशित धरातल
विस्मय बँधे
मुग्ध, आत्मपूरित
संसार पीठ पर धरे
भिन्न वायुमंडल की
ओढ़े सुन्न कामरी
अद्भुत पद्धतियों पर
निसर्ग की समाधि सी
इतने जीवंत लोक
कामना भरे हुए
भोली दृष्टियों में
अर्थ अनगिन रचे हुए
प्यारी संततियों की
मानते मनौतियाँ
ममतामय चेहरे
भाव-सृष्टि की कसौटियाँ
चढ़ते निज संस्कृति की
सदाधार सीढ़ियाँ
पाँतों में उठतीं
विश्वास भरी पीढ़ियाँ
शतियों पर छाईं
वह प्रीतलीला की रोलियाँ
मांसल मद पूत
लालसाओं की अबोलियाँ
सतरंगे मोहों की
उत्सव सी कांतियाँ
देह-रस भोगों की
मनचाही शांतियाँ
प्यासी आसक्तियों की
अनथक रंग क्रांतियाँ
सत्यों से ज़्यादा बड़ी
जीने की भ्रांतियाँ
अपने संदर्भों को मानते चिरस्थायी
अपना अनुपात ही कसौटी है अमरता की
कल्पों तक
अपने उपकरणों में भूले हुए
क्षण-क्षण के मोहक संबंधों में डूबे हुए
ध्यान ही न लाते
यह धराएँ जीवधारिणी
साँवर, रसगर्भा, गंधरूपा
छबिवाहिनी
तिल-तिल सँजोए
सभ्यताआंे के चिन्ह लिए
मायाचित्रों जैसे दीपित नभ भवन लिए
चमकीले, बिम्ब ढके
नगरों की रँगरेली
नर, मादा, शिशुओं की
द्वीप-द्वीप अठखेली
गोदी की, घर की
सोंधे वक्षों की ऊष्माएँ
आँखों की, अंगों की
शब्दहीन भाषाएँ
इन सब अनूठी कथाओं कें इंद्रजाल
चुटकी भर वाष्प बना खाएगा अन्तराल
भावी में काल-बद्ध
एक वह जरायु घड़ी
आएगी फन पसार
अग्नि-दंश तापभरी
मरते हुए पोले सूर्य
वृहद तारक
विकराल काय
क्रम से ग्रह-मंडल का कर देंगे दिशा-दाह
ऐसा क्यों होता है?
अरबों ब्रह्मांड शून्य, निर्जन रह जाते हैं
अरबों सृष्टियों के रंगदीप बुझ जाते हैं
शून्यों से लेकर
महाकरों तक
जीवों से पिंडों तक
फूलों से पतझाारों तक
यह असंख्य संख्याएँ
क्रियाएँ, अवस्थाएँ
पुष्कल, अबाध
सबकी सब सृजन का न भार झेल पाती हैं
सर्जक कुछ बनतीं
अधिक निष्फल, रिक्त जाती हैं
यह सारे प्राणवंत
भर-भर कर बीज-कोष
शीश पर धरकर
कहाँ से ले आते हैं,
सब अपनी टोकरी उँडेल
चले जाते हैं
यह पुनरावृत्तियाँ
किसके लिए होती हैं
क्या है जो बार-बार
निज को दुहराता है
फिर बनता कमल
फिर जल बन जाता है
सघन में सिमटता
निर्व्यास में समाता है
अर्थों में घिरता
फिर निरर्थ हो जाता है।