"चलते चलते / यतीन्द्रनाथ राही" के अवतरणों में अंतर
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ज़िन्दगी जीने के सलीक़े अपने-अपने हैं। काँधों पर तुमुल कोलाहल लादे भी उम्र की एक लम्बी दूरी पार कर आया। अब 92वीं सीढ़ी पर खड़ा हूँ। पीछे लह-लह-मह-मह हरित कछारों का राग-रंजित गन्ध-प्लावित सौन्दर्य और आगे अनन्त के ऊँचे शिखर, कहाँ पहुँचूँगा, पता नहीं, अनिश्चय के अनजाने क्षितिज हैं। चलना तो है ही सो चल रहा हूँ। गुनगुनाने की आदत है, गीत भी उतर ही आते हैं। ज़िन्दगी ठहरी नहीं है तो मैं ही क्यों ठहर जाऊँ? उधर अनुज इन्द्रजी चुप बैठने नहीं देते, उन्हें तो एक और संग्रह चाहिए था सो 52 गीतों का एक और संग्रह भी हो ही गया। साँसों की उष्णता संवेदनों को जमने नहीं देती, भीतर कुछ है जो फूट कर बह जाने को आतुर है। गीतों की एक नयी सृष्टि सिर उठाये खड़ी है, आपसे बतियाने को, टकराने को, प्यार के कुछ नए बन्धन बुनने को।
याद आती है 1990 की बात है, हम दिल्ली बसन्त कुंज डी-3-480 फ्लैट में रहते थे। रोज़ सुबह एक लड़की निर्मला काम करने आती थी, द्वार खुला हो तो दूसरी मंज़िल से ही उसकी गुनगुनाहट उसके आगमन का सन्देश देने लगती थी। जब तक काम करती थी गाती थी या कहूँ गाती थी तो काम करती थी! बड़ी मोहक मधुर ध्वनि के गीत आज भी कानों में, स्मृतियों में जीवन्त हैं। चिड़िया सी फुदकती उस लड़की से मैंने सीखा ज़िन्दगी जीने का सलीक़ा। अब जाने कहाँ होगी वह लड़की और कहाँ होंगे उसके गीत। बहेलियों के इस हिंसक जंगल में बड़ा मुश्किल है नैसर्गिक ज़िन्दगी जी पाना; पर मेरे भीतर वह आज भी है। कभी एक कविता भी लिखी थी निर्मला, वह सब अतीत हो गया, वर्तमान यह है कि वह मुझे गुनगुनाना दे गयी सो गीत बन रहे हैं। इनमें कहीं अतीत की स्मृतियाँ हैं, मोर पंखी दिन, जगमगाती रातों के सपनीले प्रसार है, स्वर्णिम भोर है, सुरमयी साँझें हैं, तो कहीं वर्तमान के अँधेरे प्रकाश हैं, संघर्ष हैं, विरूपताएँ हैं। स्वार्थान्धता में लिपटे रिश्ते हैं, प्यार के बाज़ारू आकर्षण हैं, अनीतियों में लिपटी नीति संहिताएँ हैं। आगत के सुहाने आवरण में अपेक्षाओं की दमघोटू दुर्दशाएँ और कल्पनाओं के अतिरंजित धरातल पर यथार्थ के चुभते शूल हैं और वह सब है जो इस अनन्त के गहराते वातावरण में गमकता अनुरणित होता मुझे एक नयी शक्ति से अनुप्राणित करता है। जो सहज ही इन गीतों की पंखुड़ियों पर ओस बिन्दु बन बिखर जाता है, पराग कणिकाओं की नन्हीं हथेलियाँ पसार कर मुझे बुलाता है और किरनों की किलकारियों से ज़िन्दगी में रस घोलता रहता है। इनमें डूबकर मेरे गीतों ने कुलकना, पुलकना, रंगना और महकना सीखा है। मैं इनमें बह रहा हूँ, जी रहा हूँ और व्यक्त हो रहा हूँ। इनमें वह भी है जो विरूप, अप्रिय और उपेक्षनीय है और वह भी जो मुझे अतिप्रिय लगा। रमा हूँ जिसमें मैं, सब कुछ जिया समाज की समरसता के साथ ही, राजनीति ने कभी आकर्षित नहीं किया है। जहाँ उसके काँटे मेरी संवेदनाओं की उंगलियों में चुभे हैं, मैंने उनका प्रतिरोध अवश्य किया है तब हो सकता है कहीं मेरे शब्द कुछ कठोर हो गए हों किन्तु मर्यादा की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन मैंने कभी नहीं होने दिया। अखबारी और सपाट बयानी मैं कभी नहीं कर पाया।
पिछले संग्रह काँधों लदे तुमुल कोलाहल मे ं जनवरी 16 से 10-4-17 तक सवा साल के 52 गीत थे इस संग्रह में 20 अप्रेल 17 से 31-12-17 तक, 9 माह के 52 गीत हैं। इसके बाद अब क्या होगा नहीं जानता। पर इन्द्रजी ने वचन लिया है कि एक और संग्रह होना ही है। उनकी अधिकारपूर्ण अपेक्षा, आप सबका प्यार और शुभकामनाएँ हैं, नियति की स्वीकृति देखें क्या होती है। अभी तो शायद कुछ कर पाऊ, कल की कौन जानता है।
आभारी हूँ भाई वेद प्रकाश शर्मा वेद का, अपनी अतिव्यस्तता और दुर्घटनाग्रस्त सीधा हाथ होने पर भी भूमिका लिखने का कष्ट झेला है।
आभारी हूँ प्रिय आदरणीय भाई कैलाशचन्द्र जी पन्त का आवरण पृष्ठ पर अपने विचार दिये।
प्यार आता है भवेश दिलशाद पर बड़े अधिकार से कह दी है शोर के सन्नाटों में अपनी बात।
आभारी हूँ उन सबके स्नेह और शुभकामनाओं का जो दूर बैठे बूढ़ी साँसों के संबल बने मेरे भीतर ऊर्जा उड़ेलते रहे है, लखनऊ से ख्यातनाम भाई मधुकर अष्ठाना गाजियाबाद से, डॉ. योगेन्द्र दत्त शर्मा, ब्रजकिशोर वर्मा शैदी, जगदीश पंकज, जयपुर से भाई त्रिलोकी प्रसाद शर्मा, मैनपुरी से जगतप्रकाश चतुर्वेदी, भोपाल परिवार से भाई जंगबहादुर, ‘बन्धु’, मयंक श्रीवास्तव, महेश अग्रवाल, किशन तिवारी, अशोक निर्मल, आचार्य डॉ. रामवल्लभ, सक्सेना द्वय भाई महेश और घनश्याम, युगेश शर्मा जी, गौरीशजी राजुरकर राज आदरणीय डॉ. मूलाराम जोशी, भाई सतीश चतुर्वेदी और मित्र आनंद और उन सबका जिनकी शतायु कामनाओं के गन्ध वलय जन्मान्तर तक मेरी उम्र के क्षितिजों को महकाते रहेंगे।
पुत्रवत गुरु भवेश दिलशाद और पुत्रीवत शिष्या श्रीमती ममता वाजपेई, शिष्य राज सत्यप्रकाश त्रिवेदी अभी तक शक्ल नहीं देखी दूर राय बरेली में बैठे परिमार्जित वाणी में सुमधुर कंठ से गुथी गीतों की कितनी मालाएँ मुझे पहनाते रहते हैं। कितना आशीर्वाद दूँ इन सबको।
और अन्त में मेरी धर्म पत्नी श्रीमती शीला यादव और बच्चे जिन्होंने मुझे दायित्वों से मुक्त कर, रचना शीलता को स्वस्थ वातावरण दिया। अहो भाग्य।
यतीन्द्रनाथ राही
समर्पण
जन्मभूमि भारौल की माटी को,
माँ को, जिसकी कोख से जन्मा,
गाँव को, जिसमें पला बढ़ा,
पिता को, जिनकी उंगली पकड़कर चला, लिखना सीखा, जगत को जाना,
इतनी लम्बी उम्र दे दी जिन्होंने
उन सबको भी, जिनके संवेदन
आज भी कहीं छूते हैं
जिन्दगी जीने के
हौसले जगाते हैं
यतीन्द्रनाथ राही
यादें -
कोटर में
तोते के बच्चे
जंगल में झूली झरबेरी
अब तक यादों में घुलती है
पकी निबौली
कच्ची कैरी