"भिन्नता ओढ़े खड़े / यतींद्रनाथ राही" के अवतरणों में अंतर
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खोजने तो
राह सीधी सहज ही
घर से चले थे
पर समझ आता नहीं है
हम कहाँ उलझे पड़े हैं
आदमी का रक्त
माँ के दूध के
कब रँग अलग हैं
मौसमों की चाल के
किसके लिए कब
ढंग अलग हैं?
एक धरती
एक अम्बर
एक जीवन की कहानी
धड़कनों में तो सभी की
एक जैसी है रवानी
एक आदम ज़ात हैं
पर भिन्नता ओढ़े खड़े हैं
किरन ने कब पूछ कर
खिड़की किसी की खटखटाई
चाँदनी कब
पूछकर परिचय,
किसी के पास आई
खुशबुएँ आई गयीं
अहलाद के संस्पर्श धर कर
बाँध लेती हैं हवाएँ
बाजुओं में हमें भरकर
प्यार भीगी हैं फिज़ाएँ
और हम
लड़ने अड़े हैं।
आदमी को सरहदों में
कर लिया हमने विभाजित
एक था परब्रह्म
वह भी
हो गया अब तो विवादित
हैं बहुत शातिर मदारी
नाचते तो हैं हमी तुम
स्वर्ग को लाने चले थे
रच लिये कितने जहुन्नुम
आदमी तो रह गया है
बस यहाँ केवल मुखौटा
सत्य तो यह है कि,
सब शैतान ही
छोटे-बड़े हैं।
16.9.2017