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"करेंगे क्या अब जीकर? / यतींद्रनाथ राही" के अवतरणों में अंतर

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बहुत देख ली
दुनियादारी
और करेंगे क्या
अब जीकर

ढोते रहे धरे माथे पर
ग्रन्थ, कभी हमने कब बाँचे
ब्रह्म वाक्य हो गयी कथाएँ
भाष्य गढ़े
झूठे या साँचे
अन्धी राहें, गलित मान्यता
बोझिल अहं, लाद कन्धों पर
कौड़ी मोल आचरण बेचे
नज़र रही काले धन्धों पर
निकल गया सोना हाथों से
भरते रहे
जेब में पीतर।

चलता रहा
अमृत का मन्थन
रहे वारुणी में मदमाते
पिटते रहे समय के हाथों
बढ़ते रहे कर्ज़ के खाते
कभी किसी का
दर्द न बाँटा
प्यार न समझा
धरम न माना
अपनी करम जली चादर की
पावनता का मरम न जाना
ज़रीदार मखमली लबादे
मरता रहा आदमी भीतर।

रोज़ गड़े मुरदे उखाड़कर
तू-तू मैं-मैं सिर टकराना
सहज़ ज़िन्दगी की राहों में
नफरत बोना
आग लगाना
धरी चुप्पियाँ हैं ओठों पर
क्या क्या क़लम लिखे बेचारी
तुलसीजी के राम राज्य पर
लगती आज
सियासत भारी
ओढ़ी नहीं जा रही है यह
फटी चदरिया
अब सी-सीकर।
20.10.2017