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छूटी लटैं अलबेली-सी चाल भरे मुखपान खरी कटि छीनी।
चोरि नकारा उघारे मोहन हेरि रही जु प्रबीनी॥
बात निशंक कडै अति मोहि सों मोहिं सों प्रीति निरंतर कीनी।
छोड़ि महानिधि लोग की हित मेरो सो क्याँ बिसरै रस-भीनी॥