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भयो अविद्या तम को नास॥
ज्ञान रूप को भयो प्रकास।
सूझ परयो निज रूप अभेद।
सहजै मिठ्यो जीव को खेद॥
जीव ग्रह्म अन्तर नहिं कोय।
एकै रूप सर्व घट सोय॥
जगत बिबर्त सूँ न्यारा जान।
परम अद्वैत रूप निर्बान॥
बिमल रूप व्यापक सब ठाईं।
अरध उरध महँ रहत गुसाईं॥
महा सुद्ध साच्छा चिद्रूप।
परमातम प्रभु परम अनूप॥
निराकार निरगुन निरवासी.
आदि निरंजन अज अविनासी॥