"राजपथ पर चौकड़ी / प्रभात कुमार सिन्हा" के अवतरणों में अंतर
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उत्साह से चौकड़ी भर रहे हैं वे राजपथ पर
अंधेरी रात में भी चांदी-सी चमकती है सड़क
यहाँ मेघ भी घिरता है सुनहरी चमक के साथ
कतार में लगे पेड़ों की हरित पत्तियाँ
पन्ने के रंग का आभास देती है
अपार सुख का विस्तार दृश्यमान है यहाँ
हम हैं कि सूर्य की गर्म रश्मियों से जलते
पहाड़ों की तराई में बैठकर माथा ठोंकते हैं
फिर भी कविता यहाँ
अलाव बनकर सुलगती रहती है
दिनभर नदियों के मुंह से गुस्से का फेन बहता है
यहाँ बस सपनों की खेती होती है
मर्सिया गाना ही शेष बचा है
महानगरों के सुसज्जित सभागार में
जमा होते हैं क्रान्तिधर्मी
एड़ियाँ उचकाकर देते हैं तालियों के बीच अभिभाषण
बस एक चाहत के साथ लार टपकाते हुए
सत्ता के महाभोज की उच्छिष्ट रोटी का
छोटा-सा टुकड़ा पाने की याचना ही इनका अभीष्ट है
लाल पताकाओं से सजा रहता है सभागार
राजपथ के किनारे रेंगने की अभीप्सा ओढ़कर
ऊब-डूब होते रहते हैं क्रान्तिधर्मी
आडम्बरों से क्षुब्ध कवि
अपने पेबन्द लगे पाजामा पहन
गर्म पहाड़ के बड़े से चट्टान की छांह में बैठ
कविता की नई उद्भावना पर चिंतन कर रहे हैं।