भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बेजुबान / अशोक कुमार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक कुमार |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

12:49, 15 अगस्त 2018 के समय का अवतरण

बचपन की दी गयी नसीहतों में
यह भी था चुप हो जाना
उम्र के आगे

और उम्र के आगे वह किसी ऊँची शिला पर उकेरी मूर्ति की तरह नतमस्तक था

चुप होने का मतलब एक तहजीब को जिन्दा रखना था
और मन में उठती आवाजों को
एक सलीके के लिये बेजुबानी का अमली जामा पहना दिया जाना था

ऐसा तो बिलकुल ही न था
कि खौलते पानी के पतीलॅ को
किसी ढक्कन से दबा दिया जाय हमेशा के लिये
वह बन गया था पतीले के उपर
रखा गया थाल
जो हिल जाता था खुद के भीतर
उफनते उबाल के आगे

जमीन पर खींच दी गयी थी एक रेखा
जिसके पार जाना खतरे की तमाम संभावनाओं से भरा था
वह रेखाओं के पार भेज देना चाहता था उन शब्दों को
जो ककहरे की व्याकरण सम्मत विधियों के भीतर ही बनाये थे उसने
पर जिसमें रेखाओं की ज्वाला से कहीं अधिक धधक और आग थी
कहीं अधिक बेचैनी
जो किसी अनन्य सर्जन की वेदना के उदास रंग भर रहे थे

चटख रंगों का एक सुघड़ सपना अपनी आँखों के आगे पसरी जमीन पर
जमी हुई बर्फ की तरह देखना चाहता था वह
जिसे कभी पिघला सके तो वैसी ही आग
जो बेजुबानी की हदों से आगे जाकर
निकाले गये शब्दों की आग से धधकता हो

फिलहाल एक चुप्पी जो धर दी गयी थी उसकी जुबान के आगे
उस अनुशासन के अनुसंधान में लगा था वह
जो चुप रहने और खौल कर बुदबुदाने से निकले मौन शब्दों को
बेजुबानी की हदों को पार करा सके
उम्र की सारी अड़चनों को तोड़ कर।