भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"प्रतीक्षा / अशोक कुमार पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक कुमार पाण्डेय |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

14:13, 1 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण

एक- घर

एक उम्मीद रहती थी यहाँ कि जैसे तुम रहती थी
कमज़ोर... बल्ब सी टिमटिमाती
अपने देश निकाले से बेख़बर
तुम्हारी आँखों सी उदास तुम्हारी आँखों सी चमकती
 
वह घर खाली पड़ा है
दरवाजे ध्वस्त, दीवारें अनमनी सी
एक आँगन है हरा भरा
एक दालान पसरी हुई दरवाज़े तक
 
इंतज़ार में खुली हुई दो आँखें हैं समय की लाश हो जैसे।।।
 
 
दो- दुआर
 
दीवार पर निशान हैं तुम्हारी उँगलियों के
उपले जल चुके हैं उम्मीदों की तरह
 
गैया के खुर के निशान हैं और हौदी खाली है
नीमकौड़ी झर रही है और खरहर झिलंगी खटिया के पैताने ओठंगा है उदास
बकरियाँ नहीं लौटीं आज की शाम
तुलसी चौरे पर नहीं जला कोई दीप
 
कोई मेहमान नहीं आया दरवाजे पर
बोरसी ढरकी पड़ी है बीमार कुतिया के सिरहाने
 
दुआर
जैसे सरयू किनारे बहकर चली आई कोई अभागी लाश
 


तीन - गाँव
 
दिया बुझ रहा है डीह बाबा के चौरे
पर कितने बूढ़े हो गये हैं डीह बाबा चार दिन में
 
चार दिन में झुक गयी है बंधे की कमर
चार दिन में पियरा गया है नीम
सरयू जी बिहौती कन्या की माँ की तरह उदास
मैं किस किस को सम्भालूँ?
 
देखो अब तक खड़ा हूँ ओसारे में
चलो खरहरा कर दूं
बटोर दूं नीमकौड़ी
चार अड़हुल तोड़ कर रख दूं चौरे पर
अगिया ला दूं थोड़ी सी कहीं से
मटिया दूं बटुली, माज लूं लालटेन
 
तुम लौटोगी तो कैसे चीन्होगी सब अन्हारे?
 
 
चार - प्रतीक्षा
 
तुम आना
 
जैसे छिम्मी में आते हैं दुधहा दाने
नदी में मछलियाँ आती हैं
पेड़ों में पत्ते आते हैं जैसे
जैसे कोठिले में अनाज आता है
 
वैसे मत आना
 
जैसे पुरहित के घर आता है सीधा
जैसे बिटिया के लिए आता है गले में सोहर
जैसे लौटते हैं कमाऊ पूत मत लौटना वैसे
मत आना जैसे गवनहर आँखों में आते हैं आँसू
 
जब ठेंगुना भर पानी में अदहन सा खदक रहा हो मन
और पहली बियान के दूध सा महक रहा हो तन
तुम आना
तुम आना
जब माँड जैसी मीठी धूप में अलसाई हो सरसों
जब चटक रही हो बोरसी में सिधरी महुआ जब दहकेगा इस बरस पलाश सा
तुम आना।