"वाह सहेली / नंदेश निर्मल" के अवतरणों में अंतर
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देख सहेली कितनी अच्छी
वह कुरेदती मुझको रहती
शिक्षा रूपी धन संगृह पर
हरदम जीनें-मरने कहती।
कुछ-कुछ बात स मझ में आई
अब विद्यालय मैं जाऊँगी
अनपढ़ अन्धा एक बराबर
पढ़ी-लिखी मैं कहला ऊँगी।
पढ़ी-लिखी कन्या को वर भी
पढ़ा लिखा सुंदर मिल ता है
जीवन के सुखमय सप नों का
पुष्पित बाग तभी खिल ता है
बढ़ कर थाम समय का बाजू
पथ जो खुद का खुद ही गढ़ता
वही ज्ञान-विज्ञान जगत में
सदा अग्रणी बन कर रहता।
मैं भी तो बन सकती आखिर
क ल्पना चावला सी प्रतीभा
जि सने पूरी दुनिया में बढ़
दी नारी गौरव को आभा।
य ही सोच ले राधा, सीता,
जूही चम्पा और चमेली
सब वाहिना हूँकार उठेतो
कह बैठें सब ‘वाह सहेली’