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"पानी भरावन 3 / बैगा" के अवतरणों में अंतर

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19:32, 3 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण

बैगा लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

गाई डारे झिक लोटा, झिक पानी गोड़ धोईले रे
काहै हम परदेसी पराई पाहुना पानी पानी दई दे।
लोटा के पानी गरम करी ले,
तोर चढ़ती जवानी धरम करी ले।
काँसे की थाली कसाई रखेना,
मोर गाये ददरिया रसाई रखेना।
धीरे गाई ले॥

शब्दार्थ –झिक लोटा= लोटा भर पानी, गोड़-पैर, पाहुना=मेहमान।

घर के समीप पहुँचने पर सहेली एक और ददरिया गाती है। सहेली! तुम घर में से पाँव धोने के लिए लोटा भर पानी ले आओ और हमारे पैर धुलाओ। हम सब नदी से सोने के कलश में पवित्र जल लेकर लौट आये हैं। सहेली घर में से लोटे में पानी लाई और सबके आँगन में पैर धुलाये। फिर सबको घर के भीतर ले गई।

पवित्र जल के कलश को घर के कोने में सुरक्षित जगह में रख दिया।
अब इसी पानी से दुल्हन के लिये तिकसा (हल्दी का उबटन) और बेबर खेती के अनाज के (मंडया) के आटे को घोलेंगे और दुल्हन के अंग-अंग में लगाएंगे। फिर मिट्टी खोदने जायेंगे। इसके बाद लड़के-लड़की में ददरिया सवाल-जवाब होने लगते हैं।

लड़का कहता है- ऐ लड़की! लोटे का पानी थोड़ा गर्म करके लाना और तुम्हारी चढ़ती जवानी थोड़ी सी दान कर देना। हम तुम्हारे यौवन पर निछावर हैं।

लड़की कहती है- काँसे की थाली में खट्टी चीज भी कसैली नहीं होती। इसी प्रकार मेरा ददरिया भी तुम्हारी बात का बुरा नहीं मानता। पर ददरिया थोड़े धीरे से गाना।