भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"झरती माँदी / बैगा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKLokRachna |भाषा=बैगा |रचनाकार= |संग्रह= }} <poem> हाथे सरुता बग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

20:00, 3 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण

बैगा लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

हाथे सरुता बगल तलेवार रोई-रोई के।
रोई-रोई के खोजय अपन परिवार खोजे।
नय मिलाय।
सेमी के संगमा टोरेला भजेरा।
ताना मनला मिलाय के झै करबे उजेरा॥
पाने ला खावय मुँह मला कारे लाल।
जादा माया झै तो करबे,
होय जाही जीव के काल
धीरे गाय ले
हाथे सरूता बगल तलेवार रोई-रोई के॥
रोई-रोई के खोजय आपण परिवार खोजे,
नय मिलाय॥
  
शब्दार्थ :-सरूता=सरोता, बगल=बाजू में, कमर में, रोई-रोई=रो-रोकर, सेमी=सेमीफली, संगमा=साथ में, टोरेला=तोड़ना, भजेरा=छोटा बैंगन, तना=तन, मनला=मन को, करबे=करना, उजेरा=उजेला, धोखा देना, तोड़ना, माया=प्यार।
  
दुल्हन की सहेली कहती है- अरे दूल्हे! तुमने कमर में सरोता खोसा है और हाथे में तलवार रखी है। तुम तो आज के दिन राजा हो। फिर क्यों रो रोकर तू अपने माता-पिता आदि परिवार को ढूँढ रहे हो। क्या वे तुम्हें नहीं मिल पा रहें हैं। सहेली दुल्हन को अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहती है- देखो! सेमीफली के साथ छोटे आकार के बैंगन को तो तुम तोड़ सकते हो। दोनों की भाजी बनाई जा सकती है। लेकिन तुम मन और तन मिलाकर मत तोड़ना। किसी को अधर में छोड़ मत देना। बहुत आघात लगेगा।

जिस प्रकार पान खाने से होठ लाल हो जाते है। इसी तरह ओंठों की लाली के समान तुम ज्यादा प्यार मत करना, क्योंकि अधिक प्यार जताना भी जी का जंजाल हो जाता है, यानि कष्ट प्रद हो जाता है। हे सहेली! इस बात को अच्छी तरह से समझ लेना।

बेवड़ करमा
कोने उजाड़े ढाती पाताल रे,
कोने रूखा उयाए। एहे राम कोण
गोड़ेवा उजाड़े धरती पाताल रे
बैगा उजाड़े रूखा राय। एहे राम कोने

शब्दार्थ :- उजाड़े=करे, धरती पाताल= धरती पाताल, रूखा=वृक्ष, गोड़ेवा=गोंड, कौने=कौन।

कौन धरती की छाती पर हल चलाते हैं। और कौन लोग बिना हल चलाये पेड़ों को काटकर खेती करते हैं। - गोंड लोग धरती की छाती पर हल चलाते हैं। यानि हल बैल ले खेती गोंड लोग करते है। - हम बैगा लोग परंपरा से धरती की छाती पर हल नहीं चलाते। हम धरती को बेटी मानते हैं। उसकी छाती पर हल कैसे चला सकते है। यही कारण है की हम बेवड़ या वेवर खेती करेते है। पेड़ काटकर मैदान तैयार करते है। फिर पेड़ों को सुखाकर जला देते हैं। पेड़ जलकर राख़ हो जाते हैं। वर्षा होने के बाद सभी तरह के बीज मिलाकर उस खेत में छेंत देते ही। इसे वेवर खेती कहते है। जल्दी आने वाली फसलें काट लेते हैं। जिसमें कोदो, कुटकी, सावा, मक्का आदि प्रमुख हैं। आजकल बेवर खेती प्रतिबंधित हो गई है। अब बैगा भी खेत में हल चलाने लगे है।