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16:10, 5 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण

भील लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

माथे नी हयणी ढली गई,
कहां लग भालुं तारी वाट रे।
हाथ रंगीली लाकड़ी,
रही गई ढोलिहा हेट रे।
चूल्हा पर खिचड़ी सेलाई गई,
कहां लग भालुं तारी वाट रे।
सींका पर चूरमो सेलाई ग्यो,
कहां लग भालुं तारी वाट रे।
मारो रावलियो कुकड़ो तो,
रावलियो-रावलियो जाये रे।
राजा नी रानी जागसे,
तो टोपसे ढोलिड़ा हेट रे॥

- प्रियतमा अपने प्रियतम का इन्तजार कर रही है। वह कहती है- हिरणी (आसमान में उदित होने वाले तीन तारे, जिन्हें देखकर समय का अनुमान लगाया जाता है) ढल गयी है अर्थात् आधी रात हो गयी है, अभी तक प्रिय घर नहीं आये, मैं कब तक राह देखूँ? उनके लिए रखी खिचड़ी और सींके पर रखा चूरमा भी ठण्डा हो गया है। प्रेयसी, प्रिय के विरह में इतनी व्याकुल हो गयी है कि मुर्गे को टोकनी में बन्द करना ही भूल गयी।