भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बदनाम आदमी / शिवदेव शर्मा 'पथिक'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिवदेव शर्मा 'पथिक' |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

19:34, 13 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण

सच कहनेवाला दुनिया में बदनाम बनाया जाता है,
इन्सान न्याय की वेदी पर ईसा का खून चढ़ाता है!

है कहाँ खड़ा मंसूर आज जो बलिवेदी पर जायेगा?
गाँधी अपनी सच्चाई का उपहार गोलियाँ खायेगा!
ज़ंजीरें सबने पहिनायीं मानवता के मतवालों को,
ली काट जीभ तलवारों से, हँस दिया देखकर छालों को.

यह दुनिया आग लगा देती हर दीप जलानेवाले को,
बेड़ियाँ पाँव में देती है मंज़िल पर जानेवाले को.
निर्माण जगानेवाले को दे रही लहू की होली है,
ताने कसती है रहबर पर, यह दुनिया कितनी भोली है!

तालियाँ उसी पर देती है जो राह बताने आता है,
बीसवीं सदी का हरिश्‍चन्द्र ईमान बेचकर खाता है!

हर एक वीर है बेईमान, हर झूठा एक खिलाड़ी है,
जो पाप छिपाले ख़ूबी से, वह जीने का अधिकारी है,
इन्साफ़ चीज है सौदे की, जो चाहेगा, वह पायेगा.
ईमान तौलनेवाला यह बाज़ार, न मिटने पायेगा.

इस दुनिया की बदनामी से, हर बार मुसाफ़िर हारा है,
सच कहो अगर तो कट जाओ-बस यही आज का नारा है.
छल को देता है कर्ण कवच-कुंडल भी अपनी काया है,
आदमी नाम है छलियों का, मदहोशों का, दोपाया का!

आदमी एक आवारा-मन, जो माँ, बहनों पर आता है,
फिर मन्दिर, मस्जिद, गिरजे में पूजा के फूल चढ़ाता है.

इन्सान खड़ा चौराहे पर, चाँदी के जूते खाने दो,
इसको नंगी मानवता पर खुल-खुलकर टिकट लगाने दो.
इन्सान बाप है बेटी का, उस्ताद खुले बाज़ारों का,
ईज़्ज़त की टोपी पहन-पहन जो काम करे गद्दारों का.

आदमी, शान्ति का चाहक है-यह महानाश का गोला है,
आदमी, फ़सल है धरती की-रेगिस्तानों का शोला है.
यह महावीर है, गौतम है, तो हिटलर का अनुयायी भी,
यह सत्य-अहिंसा पूज रहा तो छूड़ी लिये कसाई भी!

आदमी, पेट के लिये, लाज को बेच शहर में आता है,
यह शाहजहाँ जो शोणित पर पत्थर का ताज़ बनाता है!

यह दुनिया, अग्नि-परीक्षा दे सीता होती बदनाम जहाँ,
लग गया चाँद में भी कलंक, लगता अस्मत का दाम यहाँ.
फिर मिले मान भी योगी के माटी में, कैसा नाता है ?
बदनाम सूर्य भी कुन्ती के आँचल में प्यार चुराता है.

बदनाम गली है दुनिया की गंगा-यमुना की धारा है,
फिर भी आदमी समुन्दर है, जो खारे का ही खारा है.
यह सर्वोदय की मधुर कड़ी, कटु सर्वनाश की ज्वाला है,
सागर से निकला अमृत भी, यह विष का जलता प्याला है.

आदमी फूल का माली है, जो पथ पर शूल बिछाता है,
अपने भाई के खेतों पर कस-कसकर मेड़ बनाता है.

इन्सान तपाया सोना है, यह राख बनी मर्यादा है,
यदि अवतारों का चेला है, तो आवारों का प्यादा है.
यह धर्मराज ! जो कभी स्वार्थ के हित असत्य चिल्लायेगा,
खोखले आन की छाया में नारी पर दाँव लगायेगा!

मानव गाँधी की ताक़त है, संतों, मुनियों का चेला भी,
यह नाथू की पिस्तौल अगर, बाज़ारों का अलबेला भी.
यह घिसी-पिसी मानवता है, जो घिसती-पिसती जायेगी,
क्या पता कि वह किस राही को, कब शूली पर ले आयेगी!

क्या कभी साँच को आँच लगी, माटी का तन जल जाता है,
सच कहनेवाला दुनिया में, बदनाम बनाया जाता है!